Friday, April 22, 2016

बंदियों की जिंदगी


कौशलेंद्र प्रपन्न
कैदियों की जिंदगी कैसी होती है? क्या करते हैं हमारे कैदी दिन भर? जिन्हें ताउम्र कैद की सज़ा मिली हुई है वे जिंदगी को कैसे और किस नजरिए से देखते हैं आदि कुछ ऐसे सवाल जेहन मंे लगातार परेशान कर रहे थे। जब से दिल्ली से चला और हल्द्वानी पहुंचा रास्ते इसी उधेड़ बुन मंे कटे। कैसे और किस मुद्दे पर उनसे बातचीत की जाए। अवसर संपूर्णनंद केंद्रीय शिविर जेल, सितारगंज, उधम सिंह नगर में कैदियों के बीच कविता पाठ और उनसे बातचीत का था। इस अवसर पर एसडीएम श्री बाजपेयी जी, जेल प्रभारी श्री टीपी जोशी और स्थानीय पत्रकार दोस्त भी मौजूद थे। दिल्ली से तकरीबन पंद्रह कवि,व्यंग्यकार,कथाकार आदि थे। जिन्हें उन कौदियों के बीच कविताएं,लघुकथा आदि सुनाने थे। सब के सब उत्सुक और जिज्ञासु थे कि कैदी कैसे होंगे? उन्हें कविताएं पंसद आएंगी या नहीं। लेकिन जैसे जैसे कैदियों से हाॅल भरता गया उत्साह की कोई सीमा नहीं थी। तय समय चार बजे से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। कैदियों के चेहरे पर उतरते चढ़ते भाव देखते बनते थे। उन्हीं में से एक बुजूर्ग कैदी के हाथों डाॅ प्रेम जनमेजय की सद्यः प्रकाशित किताब का लोकार्पण भी किया गया। उन्होंने बड़ी शिद्दत से किताब को पढ़ने के लिए मांगा और कहा कि आप लोग आते रहा कीजिए हमें बहुत उत्साह और प्यार मिला। केंद्रीय जेल में इस तरह का पहला कार्यक्रम था। एसडीएम साहब ने विशेष आदेश जारी कर टीपी जोशी को इस कार्यक्रम को अमलीजामा पहनाने का कार्यभार सौंपा था। काफी हद तक सफल भी रहा।
व्यंग्य के छिंटे इन कैदियों को गहरे झकझोर रही थीं वहीं कविताओं के झरोखों से ये लोग भी अपनी पुरानी जिंदगी और घर परिवार को महसूस रहे थे। कुछ की आंखें पनीली भी दिखाई दे रही थीं। पता नहीं कविता, व्यंग्य की कौन सी पंक्ति, कौन सा वाक्य, कौन से शब्द उनकी जिंदगी के कौन से तार छेड़ रहे थे पता नहीं, लेकिन हमें एक सुखद अनुभूति यह हुई कि हमने अपनी रचनाओं से इनकी बेरंग जिंदगी में थोड़ी देर के लिए ही सही किन्तु एक उमंग और आनंद के भाव जरूर प्रवाहित किया। इनकी जिंदगी को छूने वालों मंे प्रेमजनमेजय, लालित्य ललित, हरीश नवल, दिलीप तेतरवे, दीपक सरीन जैसे गीतकार तो थे ही साथ ही व्यंग्य के हस्ताक्षरों ने भी अपनी रचनाओं से इन्हें जोड़़ने मंे काफी सफल रहे।
अमूमन हम फिल्मों में कैदियों की जिंदगी जैसी देखते और ख़बरों में पढ़ते हैं ठीक वैसी नहीं होती। फिल्मी पर्दे के कैदियों की जिंदगी और हकीकतन जिंदगी मंे काफी अंतर होता है। इस जेल में बीस साल के  आयु वाले से लेकर तकरीबन अस्सी साल के आयु वाले कैदी मिले। हर कैदी की अपनी कहानी थी। हर कैदी यहां अपनी कहानी के साथ बची हुई जिंदगी बसर कर रहे थे। ऐसे ही एक एकहत्तर साल के मो. हक़ साहब से मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि राजनीतिक बदले की वजह से आज बीस साल से जेल में हैं। कब तक बाहर निकल पाएंगे यह कोई नहीं जानता। वहीं बलबीर सिंह की अपनी कहानी है। कैदियों से अब वे बंदी हो गए हैं। यानी शिविरवासी। संपूर्णनंद केंद्रीय जेल की ख़ासियत यह भी है कि यह शिविर जेल है। कैदियों के चाल चलन और व्यवहारादि को देखते हुए शिविर में भेज दिया जाता है। जहां वे बंदी होते हैं। इन्हें खुल में शिविर यानी झोपड़ी मंे रहने की आजादी होती है। इनकी दिनचर्या भी कैदियों से अलग होती हैं। ये अपने घर,परिवार की शादियों में भी जाते हैं और वापस जेल आ जाते हैं। बाजार से सामान आदि खरीदने भी जाने की छूट होती है। इस मामले में कैदियों पर एक अंकुश जरूर है। वे चाहरदीवारी के बाहर नहीं जा सकते। शाम पंाच बजे के बाद अपने अपने कमरों में चले जाते हैं। गिनती होती है आदि।
बाईस साल के मंजीत ने बताया कि उसे यहां पढ़ने को पेपर, टीवी आदि सब उपलब्ध है। बस हम बाहर नहीं जा सकते। दिनभर जिन्हें जो काम दिया जाता है उसे पूरा करना होता है। कोई लकड़ी का काम करता है तो कोई फूलों के रस निकाल कर बोतल में बंद करने का काम करता हैं। इनके द्वारा बनाए सामान बाजार मंे बिक्री के लिए जाते हैं। कुछ कैदी खेती करते हैं। बलजीत ने बताया कि मौसमी फसल हम लोग करते हैं अपने काम भर अनाज रखकर बाकी अनाज, सब्जियां आदि दूसरे जेलों में भेज दिया करते हैं।
बस यहां बंदियों की जिंदगी कट सी रही है। न बाहर आने का इंतज़ार है और न उम्मीद ही। एक बंदी ने बताया कि मेरा दोष इतना भर था कि जहां मर्डर हुआ वहां मैं खड़ा था। एक दूसरे बंदी ने बताया कि मैं मारना तो नहीं चाहता था लेकिन गुस्से में ज्यादा चोट लग गई और वो मर गया। अफ़्सोस तो है लेकिन अब क्या कर सकते हैं? उसे जिंदा तो नहीं कर सकते। किसी की शादी के एक साल हुए थे। उसकी पत्नी ने साल भर के भीतर ही आत्महत्या कर ली। पत्नी के भाई, चाचा पुलिस और वकील थे। कई सारी धाराएं लगाकर कर दिया अंदर। कभी कभी मां और भाई मिलने आते हैं। अच्छास लगता है। लेकिन बाहर आने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती। सुना है कि रात दिन मिलाकर उम्र कैद पंद्रह सालों मंे पूरा मान लिया जाता है लेकिन हमें तो यहां बीस बीस साल हो गए।
एक वृद्ध बंदी जिनकी उम्र यही कोई 65 की रही होगी। उन्होंने बताया कि अब हम बेहद दुखी हैं क्योंकि हमारे बंदी भाइयों को उनके गृह राज्य के जेलों मंे भेजा जा रहा है। हम लोग यहां धर्म,जाति, प्रांत को भूलकर बस कैदी भाई की तरह रहते हैं। अब हम बिछुड़ जाएंगे। पता नहीं फिर जीवन में कब मिलेंगे।


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