Wednesday, May 11, 2016


अंकों के पायदान पर खड़ी जिंदगी
कौशलेंद्र प्रपन्न
जब परीक्षा शिक्षा से बड़ी हो जाती है तब समस्या पैदा होती है। इन दिनों विभिन्न कोर्सों और प्रतियोगी परीक्षाओं का दौर है। हर घर मंे एक किस्म का सन्नाटा पसरा हुआ है। जिसे देखो वही परीक्षा के डर में जी रहा है। मां-बाप हों सा बच्चा,नाते रिश्तेदार चारों ओर परीक्षा का बुखार फैला हुआ है। दरअसल विभिन्न स्तर पर परीक्षाओं के बुखार फैलने के महीने होते हैं। मसलन दसवीं और ग्यारहवीं के लिए फरवरी और मार्च मुर्करर होता है। वही विश्वविद्यालय स्तर की परीक्षाएं मई और जून में हुआ करती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षाएं अब शुरू होने वाली हैं। वहीं दूरस्त शिक्षा से पढ़ने वाले बच्चों की परीक्षाएं बीच जून में शुरू होती हैं। कल्पना कीजिए जब कूलर, पंखे काम करना बंद कर देते हैं। सिर्फ और सिर्फ एसी से ही राहत मिलती है ऐसे मौसम में बीए और बी काम आदि कोर्स की परीक्षाएं होती हैं। कहां होती हैं इसपर भी नजर मारना बेहद रोचक और प्रासंगिक है। विभिन्न स्कूलों जिसमें सरकारी और निजी स्कूल शामिल हैं, जहां की टेबल, कुर्सी ऐसी स्थिति मंे होती है कि ठीक से नहीं बैठ सकते। कमर दर्द, घूटने में दर्द, कपड़े फटने का डर सब एक साथ रहता है। यदि सावधानी से अंदर बाहर नहीं निकले तो खरोच से नहीं बच सकते। कई स्कूलों में तो पानी पिलाने वाली/वाले पांच छह गिलास लेकर घूमते रहते हैं। वे पानी या तो बेहद ठंढ़े होते हैं या फिर उस मौसम मंे गले से नीचे नहीं जा सकते इतने गर्म होते हैं। यह माहौल होता है परीक्षा कक्ष का।
परीक्षा कक्षा में प्रवेश से पहले चप्पल-जूते बाहर निकलवा दिए जाते हैं गोया मंदिर या कुछ ऐसे ही स्थल पर जा रहे हों। और तो और ख़बरें तो यहां तक रही हैं कि परीक्षा भवन में प्रवेश से पहले कपड़े भी खुलवा दिए गए। निक्कर में बैठा कर परीक्षाओं मंे बैठाया गया। कोर्ट ने इसपर आदेश भी दिया कि यह गलत हुआ। सेना में हुए इस प्रकार की परीक्षा की भत्र्सना सब तरफ हुई। सेना ही नहीं बल्कि अन्य परीक्षाओं में ऐसी घटनाएं आम पाई जाती हैं। बस्ते,काॅपी किताब बाहर रखना तो समझा जा सकता है लेकिन पैंट,शर्ट आदि उतरवाकर परीक्षा लेना कुछ ज्यादा ही हो चुका है। हालांकि परीक्षा के इस चरित्र पर ठहर कर विचार से पूर्व हमंे इसके संक्षिप्त इतिहास पर भी नजर डालने होंगे। हमारी पाठ्यपुस्तकें, पाठ्यक्रम आदि का स्वरूप इस प्रकार का है कि हर पाठ के बाद सवाल पूछा जाता है कि इस पाठ से क्या सीख मिली? कवि इस कविता में क्या कहना चाहता है? आप अपने शब्दों मंे लिखें। कविता,कहानी,गद्यांश के बाद इस किस्म के सवाल बड़े ही आम होते हैं। उस बच्चों के लिए लिखी गई कहानियों पंचतंत्र की कहानी सुनाने पढ़ाने बाद शिक्षक सवाल करता है इस कहानी से तुम्हें क्या सीख मिलती है? क्या हर कहानी, कविता सिर्फ और सिर्फ सीख देने के लिए होती हैं? क्या उनका उद्देश्य हर वक्त सिखाने के लिए होती हैं या मौज आनंद के लिए भी कहानियां पढ़ाई जानी चाहिए।
एक समय था जब बच्चें के ज्ञान समझ की परीक्षा अंकों के पैमाने पर किया जाता था। अंकों के पायदान पर साठ और सत्तर प्रतिशत आना बड़ी बात होती थी। प्रथम दर्जे पर आना एक बड़ी घटना होती थी। जो बच्चे अंकों की कसौटी पर खरा नहीं उतरते थे उन्हें केवल समाज में बल्कि घर मंे भी डांट फटकार और लानत मलानत से रू रू होना होता था। पढ़ोगे नहीं तो क्या दुकान पर बैठोगे? गाड़ी साफ करोगा। क्या करोगे जीवन में? कुछ भी नहीं कर सकते। जैसे सवाल और वाक्य बहुत आम सुनने में आते थे। जो बच्चे कम अंक हासिल करते थे फेल हो जाते थे उन पर परिवार के लोग तो हंसते ही थे समाज भी हंसा करता था। और... बच्चे हताश होकर आत्महत्या की ओर मुड़ते थे या फिर निराशा में डूब जाते थे। सन् 2006 में सीबीएससी और एनसीइआरटी को महसूस हुआ कि इस परीक्षा को भी बदल दिया जाए। इससे बच्चों में परीक्षा को लेकर मन में बैठे डर में कमी आएगी। बच्चे आत्महत्या नहीं करेंगे। और इस तर्क पर परीक्षा के प्रश्न पत्रों में बड़ा बदलाव किया गया। भाषा से लेकर अन्य विषयों को बहु वैकल्पिक जवाबों मंे ढाल दिया गया।
सन् 2006 के बाद भाषा के प्रश्न पत्र बहुवैकल्पिक हो गए। एक सवाल के चार जवाब खानों मंे दे दिए गए और कहा गया सही शब्द,पद चुन कर रिक्त स्थानों पर भरो। और बच्चों के अंकों में उछाल आने लगे। अंक तो अस्सी और नब्बे प्रतिशत तक पहुंच गए लेकिन भाषायी समझ और दक्षता कहीं पीछे चला गया। भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के स्तर पर बच्चे पिछड़ते चले गए। यही वजह है कि अंकों के पायदान पर तो बच्चे चढ़ते चले गए किन्तु भाषायी दक्षता में हाथ तंग होने लगे। यह स्थिति केवल प्राथमिक स्तर पर है बल्कि काॅलेज और विश्वविद्यालयों पर भी देख सकते हैं। बी और एम स्तर पर भी भाषा के सवालों में बच्चे उलझ जाते हैं। सवालों की भाषा में थोड़ी भी फेरबदल कर दी जाए तो छात्रों को जवाब देना भारी पड़ जाता है। 
परीक्षाएं छात्रों को प्रोत्साहित करने की बजाए उन्हें हतोत्साहित ही करती हैं। परीक्षाओं को चरित्र प्रकृति यम के समान की जाने लगी। बच्चे तो बच्चे बड़ों मंे भी परीक्षा का डर घर करता चला गया। परीक्षा से पूर्व युद्धवत् तैयारी ज़रा खटकती है। परीक्षा युद्ध कैसे है? क्या परीक्षाएं सिर्फ डरनुमा महौल पैदा करने के लिए होती हैं। इन सवालों पर विचार करने की आवश्यकता है। यूं तो परीक्षा लेने का चलन हमें महाभारत काल से लेकर अब के समय में भी दिखाई देता है। अंतर सिर्फ इतना देखा जा सकता है कि परीक्षा की प्रकृति बदल गई। अब सतत मूल्यांकन, प्रोजेक्ट,शोध पत्र आदि ने ले लिया। परीक्षाएं यहां भी हैं लेकिन प्रोजेक्ट और सतत मूल्यांकन में परीक्षा के पारंपरिक डर में कमी दर्ज की गई। फेल होने और फेले किए जाने की चिंता में गिरावट आई।
प्राथमिक और उच्च स्तरों पर बच्चों के सतत मूल्यांकन को लागू किया गया। लेकिन यदि शिक्षकों कीओर खड़े होकर इस मूल्यांकन को समझने की कोशिश करते हैं तब हकीकत कुछ और ही मिलती है। शिक्षकों केा कहना होता है कि हम पूरे साल फाइलों/मूल्यांकन शीट आदि को ही दस्तावेजित करने में लगे रहते हैं। पढ़ाने का समय कम मिलता है। हमें गैर शैक्षिक कामें में लगा दिया जाता है। इन तर्कों के पीछे बहुत पुख्ता सबूत नहीं है। क्योंकि डाइस की रिपोर्ट के अनुसार पूरे पूरे साल मंे सिर्फ 12,18 और 22 दिन ही गैर शैक्षिक कामों मंे शिक्षकों को लगाए जाते हैं। यहां इस तर्क में भी कोई खास और मजबूत दम नहीं है। लेकिन हां इतना तो है कि शिक्षकों को शिक्षण कामों से अलग कई सारे कामों में लगा दिया जाता है। निरंतर ससत मूल्यांकन का एक लाभ यह भी है कि शिक्षक को हर बच्चे की निजी कमियों और मजबूत पक्ष की जानकारी होती है जिसके आधार पर वह बच्चों को साल भर चलने वाले मूल्यांकन के मार्फत परीक्षित करता है। 

आज की शिक्षा व्यवस्था में हमें परीक्षा की प्रणाली और स्वरूप को कैसे बेहतर किया जाए और कैसे परीक्षा पर लगे आक्षेप को दूर किया जाए इसपर शिक्षाविदों को मंथन करने की आवश्यकता है। प्रश्नों की प्रकृति और उसकी भाषा कैसी होनी चाहिए इसपर भी विमर्श करना होगा। क्या सवालों की भाषा कठिन,परेशान करने वाली असहज है आदि पर भी स्थिर होकर परीक्षा के सवालों की भाषा पर भी मनन करना होगा। सवालों की भाषा विद्यार्थी को समझ मंे आए। ऐसा हो कि सवाल की क्या अपेक्षा है? क्या पूछा जा रहा है इसे ही समझने में वक्त लग जाए या पूरी तरह से समझ में आए तो परीक्षार्थी सवालों का जवाब कैसे दे। कई बार परीक्षा में पूछे जाने वाले सवालों की भाषा ही समझ नहीं आती। ऐसे में बच्चे सवालों की अपेक्षाओं के परे जवाब लिख कर जाते हैं। परिणाम अपेक्षा से कम अंक मिलते हैं। यही कारण है कि कुछ साल पहले दसवीं और बारहवीं में प्रश्न पत्र पढ़ने के लिए अगल से पंद्रह मिनट का समय देने का प्रावधान किया गया। इसके पीछे यही शैक्षिक दर्शन काम करता है।

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