Monday, February 8, 2016

किताबें नहीं पढ़ना बीमारी नहीं आदत है ज़नाब


यदि समाज में किताबें पढ़ने की आदत में कमी दर्ज की जा रही है तो यह कोई बीमारी नहीं बल्कि आदत का मामला है। आदत के साथ ही किताबों की गुणवत्ता और किताबीय कंटेट का भी मसला बनता है। यदि शिक्षक किताबें नहीं पढ़ते तो एकबारगी हम सवाल उन्हीं के कंधे पर लाद देते हैं। मास्टर होकर नहीं पढ़ते। पढ़ने की कमी तो लेखक,पत्रकार,वकील आदि में भी पाए जाते हैं लेकिन यही सवाल का बोझा हम उनके कंधे पर नहीं डालते जबकि पढ़ने जैसी आदत और प्रोफेशनल जरूरत तो वहां भी अपेक्षित है। क्योंकि शिक्षक का कंधा सबसे माकूल मिलता है इसलिए इन्हीं के कंधे पर सवालों को थोप कर आगे बढ़ जाते हैं।
यदि सवाल को इस तरह पूछें कि समाज मंे कौन कौन सा वर्ग है जिससे किताबें पढ़ने की उम्मीद की जा सकती है। निश्चित ही डाॅक्टर,वकील,टीचर,शोधकर्ता आदि से तो अधुनातन रहने के लिए अपने क्षेत्र से जुड़ी किताबों को पढ़ने की उम्मीद की जाती है। पढ़ने को और स्पष्ट करें तो महज किताबें पढ़ना ही इसमंे शामिल नहीं है बल्कि अपने क्षेत्र के साहित्य गैर साहित्यिक दस्तावेज पढ़ना भी तो पढ़ने की श्रेणी में ही आता है। इस लिहाज से देखें तो डाॅक्टर, वकील अपने केस को मजबूत करने एवं बीमारी को ठीक से समझने के लिए दस्तावेज तो पढ़ते ही हैं। पूरी केस स्टडी करना वकील की व्यवसायिक प्रतिबद्धता है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...