Friday, February 12, 2016

वक्ता की चुनौतिया





कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों मुझे केंद्रीय शिक्षा संस्थाना, दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग में राष्टीय सेमिनार में पर्चा पढ़ने और अध्यक्षता करने का मौका मिला। विषय था शिक्षक शिक्षा समस्याएं और चुनौतियां। देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के शिक्षा से संबंधित प्रतिभागियों ने पर्चें पढ़े। मसलन शिक्षक शिक्षा और नीतियां, शिक्षक शिक्षा और प्रबंधन, शिक्षक शिक्षा और स्वायत्तता आदि। मेरा विषय था आजादी के बाद शिक्षक शिक्षा संस्थान और शैक्षिक गुणवत्ता की जमीनी हकीकत। इस सत्र को प्रो अनिल सद्गोपाल चेयर कर रहे थे। मैंने पर्चा पढ़ने के दौरान पाया कि सवाल-जवाब के सत्र में जिस किस्म के सवाल पूछे जा रहे थे वे बेहद ही सैद्धांतिक तरह के थे। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका जमीनी हकीकत से ज्यादा वास्ता नहीं था। उन्होंने तमाम शैक्षिक किताबों को पढ़कर समझ बनाई थी उसकी वर्तमान चुनौतियों के बरक्स जांचने की कोशिश नहीं थी। कोई एरिक फाम को कोट कर रहा था तो कोई आज भी जाॅन डिवी, पालो फ्रेरे आदि चिंतकों से आगे झांकने का प्रयास नहीं किया था। 
अमूमन पर्चा पढ़ने वाले या तो रिसर्चकर्ता था या फिर एम एड के छात्र थे। उनकी समझ और गैरतजर्बा उनके पर्चों में भी वाचल होकर बोल रहे थे। यहां तक कि कई प्रतिभागियों ने महज पीपीटी चला कर अपनी लिखी बातें और स्थापनाओं को ही पढ़कर सुना रहे थे। बीच बीच मंे प्रो अनिल सद्गोपाल ने टोका भी लेकिन कोई ख़ास अंतर नहीं पड़ा। इससे किसी को गुरेज नहीं हो सकता कि पर्चा लिखने अपने आप मंे एक श्रमसाध्य काम है। काफी शोध और रिडिंग की मांग होती है तब जाकर एक शोध पत्र तैयार हुआ करता है। लेकिन उसका वाचन कैसे किया जाए इस दक्षता व कौशल में प्रतिभागी कमतर दिखाई दिए। 
साहित्य एवं शिक्षा मंे माना हुआ सत्य है कि आप अपनी बात और विचार को कैसे रोचक और प्रभावशाली तरीके से पेश करते हैं। वाचन और प्रस्तुतिकरण एक कौशल है इसे हासिल की जाती है। अपने श्रोता वर्ग को ध्यान में रखते हुए कैसे कंटेंट के साथ न्याय किया जाए यह काफी कुछ वक्ता के कौशल पर निर्भर करता है। अधिकांश शोध छात्र व पेपर प्रेजेंटर में एक आम कमी यह दिखाई दी कि अपने पेपर को कैस प्रभावशाली तरीके से वचान किया जाए। शायद पेपर वाचन की कला से नवाकिफ प्रतिभागियों को अभी और तैयारी और वाचन कौशल को सीखने की आवश्यकता है। 
जब समय अत्यंत कम हो यानी तय समय सीमा को भी तत्कालीन समय की चुनौतियों को देखते हुए सीमित कर दिया जाए तो ऐसे मे वक्ता के लिए निश्चित ही एक कठिन चुनौति होती है। लेकिन एक कुशल वक्ता अपने कंटेंट को और प्रस्तुति को समय और श्रोता के अनुसार घटा और बढ़ा सकता है। यह घटाना और बढ़ाना वक्ता के कौशल की झांकी भी देता है। यदि वक्ता अपने श्रोता के मनोदशा और रूचि को भांपने में कमजोर होता है तब वह श्रोता के लिए बोझ ही बना जाया करता है। 
देश के तमाम विश्वविद्यालयी अकादमिक अध्ययन में ऐसा लगता है कि एक रेखीय चलने और दौड़ने की दक्षता तो प्रदान की जाती है लेकिन उनकी वक्तृत्व कला कमजोर रही जाती है। बोलने के वक्त किस तरह की भाषा, शब्दों का चयन किया जाए इस स्तर पर यदि लापरवाही बरती जाती है तब वह सत्र और वक्ता अपने पाठक और श्रोता वर्ग से एक साहचर्य संबंध नहीं स्थापित कर पाता। 


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