Thursday, October 8, 2015

लेखक राम का जीव


परसाई जी की रचना भोलाराम का जीव का नया वर्जन कुछ इस तरह भी हो सकता है।
एक लेखक की आत्मा यमराज जी की पकड़ से छूट गई। पूरा यमलोक बेचैन, परेशान, हताश सा दिखाई दे रहा है। आखिर एक लेखक की आत्मा कहां गायब हो गई। अंत में नारद मुनि जी ने यह काम अपने हाथ में लिया। पृथ्वी पर जगह जगह, हर ठौर ठिकानों पर चक्कर काट पर अंत में नारद जी हताश बैठ गए।
परेशान नारद जी को देख कर अख़बार वाला बोला महाराज क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूं। सारी कथा कहानी अखबार वाले को नारद जी ने सुना डाली। अख़बार वाला उछल पड़ा कहा, प्रभू मैं जानता हूं उस आदमी को। उसकी आत्मा को। मेरे पास वो आया करता था। अख़बारों में विज्ञापन देखा करता है खुश होता है फलां जगह पुरस्कार मिलने वाला है।
नारदी जी आंखें खुली की खुली रह गईं। भागते दौड़ते अकादमी, संस्थानों के दफ्तरों में नारद जी चक्कर काटने लगे। फाइलें थीं। फाइलों पर वनज भी थे। बातें थीं। उम्मीदें थीं। आगरा का पेठा था। आखिर नारद जी को लेखक राम की आत्मा उन्हीं जगहों पर मिलीं जहां पुरस्कारों की घोषणाएं होनीं थीं। जहां शाम की चाय होनी थी। जहां फूल मालाओं से गर्दन झुकने थे।

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