Tuesday, October 20, 2015

पढ़ने से दूर शिक्षक


कौशलेंद्र प्रपन्न
हिन्दी कहानी कई मोड़ मुहानों से गुजर कर यहां तक पहुंची है। लंबी कहानी, लघु कहानी, नई कहानी, आधुनिक कहानी, उत्तर आधुनिक कहानी, प्रगतिशील कहानी आदि संज्ञाओं से हम हिन्दी कहानी आंदोलनों को देखते हैं। इन आंदोलनों को के सूत्रधार जो भी थे लेकिन उनकी प्रतिबद्धताओं से किसी को गुरेज नहीं हो सकता। इनत माम आंदोलनों के पीछे कहानी की धारणाएं भी बदलीं। मान्यताओं मंे भी बदलाव आया। लेकिन जो तत्व नहीं बदले वे हैं कथानक और कहने की शैली। किसी भी कहानी से कथानक को नहीं निकाल सकते। साथ ही कहानी कहने की शैली को भी नकारा नहीं जा सकता।
कहानियां न केवल बच्चों को बल्कि बड़ों को भी प्रभावित करती रही हैं। हम सब ने अपने बचपन में कहानियां जरूर सुनी हैं। यही वजह है कि कहानियों से हमारा लगाव बेहद पुराना है। व्यस्कों को ध्यान में रख कर लिखी गई कहानियों और बच्चों को संज्ञान में रखते हुए लिखी गई कहानियों में काफी अंतर दिखाई देता है। वह फांक न केवल कथावस्तु बल्कि भाषायी एवं प्रस्तुतिकरण के स्तर पर भी साफ दिखाई देती हैं।
व्यस्कों के मनोविनोद के लिए कथाकारों ने न केवल कहानियां लिखीं बल्कि उन्हें प्रकाशित करने और प्रसारित करने के लिए पत्रिकाओं का प्रकाशन भी शुरू किया गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी से लेकर विष्णु प्रभाकर,बालकृष्ण देवसरे,प्रकाश मनु, विभा देवसरे, क्षमा शर्मा, रमेश तैलंग, दिविक रमेश आदि ने बाल कहानियों के सिलसिले को आगे बढ़ाया लेकिन जो बात अहम है वह यह भी है कि बाल कहानियों को परोसने वाली पत्रिकाओं की खासा कमी महसूस की जाती रही है। यदि बाल कथा व बाल पत्रिका की तलाश में निकलें तो निराशा ही हाथ लगेंगी। क्योंकि यदि हिन्दी में देखें तो नंदन,बाल हंस,चंपक, चंदामामा को छोड़ को शायद ही कोई और नाम याद आए। दरअसल बाल कहानियों और बाल पत्रिकाओं को बाजार के हिसाब से न तो देखा गया और न ही गंभीरता से इस ओर ध्यान ही दिया गया।
अगर हम भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाली बाली पत्रिकाओं के बारे में जानकारी लेना भी चाहें तो संभव है दस की संख्या पार करते करते हमारे आंखों के सामने अंधेरा छाने लगे। उत्तर भारतीयों के साथ एक समस्या यह भी है कि हम हिन्दी से बाहर झांकना भी मुनासिब नहीं समझते। हमारा दायरा और दरकार भी खासा सीमित हो जाता है। कुछ प्रमुख प्रकाशनों और पत्रिकाओं का तो हम नाम जानते हैं लेकिन स्थानीय स्तर पर प्रसिद्ध पत्रिकाओं के बारे में हमारी समझ और जानकारी छिछली ही रहती है। दूसरे शब्दों मंे कहें तो स्थानीय लघु बाल पत्रिकाओं को वह स्थान नहीं मिल पाता तो महानगर से निकलने वाली पत्रिकाओं को मिला करती हैं।
बाल साहित्य को बढ़ावा देने के लिए राज्य स्तर पर काफी प्रशंसनीय काम हो रहे हैं लेकिन उनकी पहचान और पहुंच अभी भी सीमित है। शैक्षिक दख़ल, दीवार पत्रिका, संदर्भ आदि। यहां गिनाए गए नामों पर न जाएं क्योंकि इनमें शामिल कुछ वे भी पत्रिकाएं हैं जो राष्टीय स्तर पर पहचान बना चुकी हैं। लेकिन यह सौभाग्य उन हजारों पत्रिकाओं को नसीब नहीं है जो पचास, सौ काॅपी छपती हैं, जिन्हें खरीदने वाले भी बड़ी मुश्किल से मिला करते हैं। आर्थिक पक्ष कमजोर होने की वजह से अच्छी और प्रतिष्ठित पत्रिकाएं हमारे बीच नदारत हो गईं। लघु पत्रिकाओं को जीवन दान देने वाले लेखक वर्ग ही प्रमुखता से होते हैं। इन्हें सरकारी प्राण वायु कम ही मिल करती हैं जिसकी वजह है इन्हें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ती है।
क्या किसी बचपन की कल्पना बिना कथा-कहानी की की जा सकती है? क्या कहानियों, पत्रिकाओं के बगैर पढ़ने की आदत विकसित की जा सकती है? बच्चों में पढ़ाने की रूचि विकसित करनी है तो हमें उन्हें बाल साहित्य उपलब्ध कराने होंगे। वहीं हमारे शिक्षकों और अभिभावकों को भी साहित्यिक रूचि को बचाए रखना होगा। यदि वे स्वयं पत्रिकाएं, कहानियां, बाल गीत आदि नहीं पढ़ेंगे तब वे किस प्रकार बच्चों को बाल गीत,बाल कहानी उपलब्ध करा पाएंगे।
इन पंक्तियों के लेखक को अक्सर शिक्षकों से बातचीत करने का मौका मिलता रहा है। उन के साथ बातचीत में जो तथ्य निकल कर आती हैं वे बड़ी चिंताजनक हैं। स्वयं शिक्षक न तो साहित्य पढ़ा करते हैं और न पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने की जोखिम ही उठाते हैं। पढ़ने के नाम पर जब वे छात्र रहे थे तब की पाठ्य पुस्तकें पढ़ी थीं। लेकिन जाॅब में आने के बाद इनका वास्ता पढ़ने से कटता चला गया। इसमंे पीछे वजह यह बताते हैं कि समय नहीं मिलता। स्कूल से घर जाने के बाद इतना समय नहीं मिलता कि वे कोई किताब पढ़ें। लेकिन यह कहानी पूरी नहीं है। क्योंकि कई शिक्षक/शिक्षिकाओं को यह भी मानना है कि पढ़ना तो चाहती हैं लेकिन कौनी सी किताब पढ़ें इसकी न तो जानकारी है और न समझ ही। यानी आंख,नाक,कान बंद कर जीने वाले शिक्षकों की प्रजाति में पढ़ने नाम की चिडि़या पर भी नहीं मारती। यदि पढ़ने का सुझाव दें तो तपाक से कहते हैं आपकी जैसी नौकरी नहीं है कि पढ़ते-लिखते रहें। हमंे काॅपियां भी जांचनी पड़ती हैं, जनगणना, सर्वे जैसे गैर शैक्षिक काम भी निपटाने होते हैं। इनके तर्कों को ध्यान में रखें तो एकबारगी इनके तर्क संगत लगेंगे लेकिन साथ ही यह भी हकीकत ख्ुालेगा कि यह बचने के तौर तरीके हैं। क्यांेकि इन्होंने छात्र जीवन मंे भी पाठ्यपुस्तकों को ही पढ़ना मान कर डिग्रियां हासिल कर लीं। रफ्ता रफ्ता नौकरी भी लग गई।

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