Wednesday, October 21, 2015

कहानियां लिखते शिक्षक



घटनाएं और कहानियां हर व्यक्ति के जीवन में होती हैं। लिखना का कौशल यूं तो माना लिया जाता है कि यह लेखक,कथाकार, कवि आदि के पास होता है। जो अपने और दूसरों की जिंदगी मंे घटने वाली घटनाओं, बातों को कहानी,उपन्यास आदि विधाओं में दर्ज कर देता है। यह कौशल प्रतिभा और अभ्यास, जिज्ञासा और साहित्यिक रूचि पर भी खासा निर्भर करता है। अभ्यास से लेख कौशल में निखार लाया जा सकता है। इतिहास गवाह है कि साहित्य में कई ऐसे नाम हुए हैं जिन्होंने अपनी लेखन दक्षता को अभ्यास से मार्फत धार दिया है। इस बाबत महावीर प्रसाद द्विवेदी का काम प्रशंसनीय है क्योंकि उन्होंने 1990 से लेकर 1020 तक सरस्वती पत्रिका के संपादकत्व काल में कई समकालीन लेखक, कथाकारों, उपन्यासकारों को मांज-खंघाल कर साहित्य समाज को प्रदान किया। दूसरे शब्दों मंे लेखन ऐसा कर्म है जिसमें लिखते-पढ़ते लिखने की समझ और दक्षता को विकसित की जा सकती है। लिखने के लिए एक शर्त यह भी है कि लिखने वाला अपने समकालीन और पूर्व के लेखन को मनोयोग से पढ़े व पढ़ा हो। अपने पूर्व के लिखे का अनुशरण करना भी ग़लत नहीं है क्योंकि शुरू में हो सकता है वह दूसरे की शैली का अनुकरण करे लेकिन आगे चल कर अभ्यास और स्वविवेक से अपनी खुद की शैली भी विकसित कर सकता है। अमुमन लेखकों ने किया भी है। परसाई जी, हजारी प्रसाद द्विवेदी जी, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश आदि के लेखन से प्रभावित होकर लिखना तो शुरू किया किन्तु कालांतर पर स्वयं की अपनी पहचान भी बनाई।
शिक्षक समाज से हम नागर समाज की अपेक्षा यह होती है कि यह वर्ग पढ़ने-लिखने मंे रूचि ले। स्वयं की समझ और ज्ञान को समयानुकूल अधुनातन करता रहे। यह कसौटी पर जब हम शिक्षक समाज व वर्ग को देखते हैं तब एकबारगी निराशा हाथ लगती है क्योंकि इन पंक्तियों के लेखक को कम से कम 2000 शिक्षकांे से इस मुद्दे पर बातचीत करने का मौका मिला है बल्कि लगातार विमर्श होते ही रहते हैं। इन संवादों से आधार पर कहने की हिमाकत तो कर ही सकता हूं कि इनमें से अधिकांश शिक्षकों ने स्वीकार किया कि उन्हें पढ़े हुए एक लंबा अरसा हो गया। जब वे पढ़ा करते थे तब उन्होंने पाठ्य पुस्तकें पढ़ी थीं लेकिन जाॅब में आने के बाद उन्हें पढ़ने का अवसर नहीं मिलता। इन शिक्षकों की ऐसी ही कार्यशालाआंे मंे हिन्दी शिक्षण को लेकर मेरा अपना अनुभव बताता है कि इनमें पढ़ने की ललक भी लगभग खत्म सी हो गई है। एक कार्यशाला में इन्हें अपनी दिनचर्या लिखने को दिया। उसे देख का यह साफ हो गया  िकवे लोग घर से स्कूल और स्कूल से घर की चक्की में अपना समय व्यतीत कर रहे हैं। इनके जीवन चक्र में पढ़ने का कोई स्थान नहीं था। न तो किताबें थीं और न पत्रिकाएं जिन्हें वे कभी भूलवश खरीदते हों। जब उनकी दिनचर्या जिसे उन्हीं लोगों ने लिखा था जब बातचीत शुरू हुई तो उन्हें अपनी इस आदत पर निराशा भी हुई। उन्होंने स्वीकार किया कि हां उन्हें कोई किताब न पढ़े काफी लंबा वक्त हो चुका है। उन्हें शिक्षा और भाषा में क्या कुछ नई चीजें चल रही हैं उससे वे नवाकिफ हैं। उन्हें पढ़ना चाहिए यह तो उन्हें बोध हुआ लेकिन समय नहीं निकाल पाते।
हमने ऐसे ही पूर्वी दिल्ली नगर निगम के तकरीबन 200 शिक्षकों की हिन्दी की कार्यशाला में कहानी, कविता, आलेख लेखन का कार्य कराया। विषय की कोई सीमा व चैहद्दी हमने नहीं खींची थी। हमने उन्हें खुला आसमान दिया कि आप जिस भी विधा में लिखना चाहें जो भी लिखना चाहें इसकी पूरी आजादी है। विषय का खुलापन उन्हें पसंद आया। उन्हें यह भी रोचक लगा कि उन्हें लिखने और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का एक अवसर प्रदान किया जा रहा है। कुछ लोगों ने अपनी जिंदगी की घटनाओं को बतौर कहानी लिख डाली। किसी ने निबंध लिखे तो किसी ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम कविता को चुना। हमारे लिए यह एक ख्ुाशी की घड़ी थी कि उन शिक्षकों ने लिखने से परहेज नहीं किया। वरना ऐसे भी अनुभव रहे हैं कि शिक्षकों ने सीधे लिखने से मना कर दिया। वह भी यह कहते हुए कि हम कोई बच्चे व काॅलेज के छात्र नहीं हैं जो लेख, कहानी लिखें। हमंे कार्यशाला के लिए बुलाया गया है तो हमें हिन्दी कैसे पढ़ाई जाए इस पर लेक्चर उपलब्ध कराया जाए। ऐसे शिक्षकों को समझाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी कि भाषा के कौशलांे के विकास और दक्षता प्रदान करने के लिए यह भी जरूरी है कि स्वयं शिक्षक लेखन और सृजन में दिलचस्पी नहीं लेगा तो वह बच्चों को कक्षा में कैसे कल्पनाशीलता और सृजनात्मक अवसर मुहैया करा पाएगा जिसकी वकालत राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 करती है। उन शिक्षकांे को इस कार्य के लिए मानसिकतौर पर तैयार करने में काफी मेहनत करने पड़ी। कुछ बेमन से तो कुछ मन से तैयार हो गए।
जब शिक्षकों ने लिखना शुरू किया तो गोया सन्नाटा छा गया। सब के सब लिखने मंे तल्लीन हो गए। कोई भी आवाज,बाधा उन्हें कबूल नहीं था। तकरीबन पचीस से तीस मिनट के अंदर सभी ने कुछ न कुछ लिखा। अब बारी थी अपने लिखे का वचान करना। क्योंकि इस कार्य के पीछे हमारा उद्देश्य उन्हें साहित्य की विधाओं कहानी, कविता, निबंध के वाचन कौशल से अवगत कराना भी था। ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि शिक्षक/शिक्षिका अपने लिखे को पढ़ते वक्त इनकी भावुक और द्रवित हो जाएंगी कि पढ़ते पढ़ते गला रूंद्ध जाएगा। रोने लगेंगी। इतना ही नहीं सुनने वाले भी रोने लगेंगे। कुछ की कहानियां ;यदि इन्हें कहानी पानी जाए तोद्ध वास्तव में दिल को छूने वाली थीं। इसलिए नहीं कि उन्हें सुन कर रूलाई आ गई। बल्कि इसलिए कि इन कहानियों के लेखकों ने पहली बार अपने जीवन की घटनाओं को एक लेखकीय नजर से देखा था। जिसे उन लोगों ने देखा और भोगा था उसी को वे लोग शब्दों में बयां कर रहे थे। कई कहानियों मंे बेशक कहानी के तय तत्व न दिखाई दें। लेकिन यदि गद्यांश में कहानी के एक दो तत्व भी झांकते नजर आएं तो उन्हें कहानी मान लेने मंे क्या हर्ज है। संभव है इन्हीं शिक्षकों में से कोई अपने अभ्यास और परिश्रम से एक दिन अच्छा कथाकार बन कर उभरे। क्योंकि जरूरी नहीं है कि लेखकीय प्रतिभा लेकर कर ही पैदा हुआ जाए। बल्कि जैसे की पहले भी निवेदित किया जा चुका है कि लेखकीय दक्षता कई बार अभ्यास और स्वाध्याय से भी हासिल की जा सकती है।
हमारी कोशिश बस इतनी भर है कि इन शिक्षकों/शिक्षिकाओं की छुपी लेखकीय प्रतिभा को निखरने और परिमार्जित होने का अवसर मिले। जो लिखेगा वो छपेगा और जो छपेगा वो लिखेगा यानी जब इन्हीं शिक्षकों मंे से कुछ लिखने लगेंगे तब उन्हें अपनी रचना छपने का भी इंतज़ार रहेगा। संभव है उनमें से कुछ की रचनाएं खारिज कर दी जाएं निराशा हाथ लगे और दुबार कलम उठाने से परहेज करें। इसलिए हमने योजना बनाई की क्यों न इनकी लेखनी को एक मंच उपलब्ध कराया जाए जहां वे लोग अपनी रचना को प्रकाशित रूप में देख पाएं और आगे लिखने की प्रेरणा प्राप्त करें।
एक कहानी को कैंसर पीडि़त भाई की डेढ़ साल की जिंदगी पर आधारित कहानी है जिसे पढ़ते हुए लेखिका ज़ार ज़ार रोने लगीं साथ ही पूरा श्रोता समाज भी रोने लगा। इस कहानी को पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है कि एक साधारण व्यक्ति जिन घटनाओं और जीवनानुभवों से गुजरता है। उसे किस शिद्दत से महसूस करता है और लिखने की कोशिश करता है। लिखना दरअसल पूर्वानुभवों को एक बार फिर से जीने जैसा ही होता है। दूसरे शब्दांे मंे लेखक जिन घटनाओं व जीवन के उतर चढ़ को सृजित कर रहा होता है उसे दुबारा से जीने की कोशिश करता है। इस उपक्रम में उन भावदशाओं का उत्पन्न होना भी स्वभाविक है।
कहानियां और कविताएं श्रोता और पाठक वर्ग के ज्यादा करीब रहे हैं। यह इस रूप में भी कि कहानियों की तुरत भावावेश और घटनाओं का उतर चढ़ पाठकों को बांधे रखने में सक्षम होता है। इसलिए इन शिक्षकों के लेखन में कविताओं और कहानियों की संख्या ज्यादा हैं। कुछ कहानियां व कविता कम घोषणाएं और प्रवचननुमा हो गईं जिन्हें इस संकलन में शामिल नहीं किया गया है। जिन निबंधों, कहानियों, कविताओं में ज़रा सेा भी ताज़ापन दिखाई दिया उसे चुन लिया गया है। पाठक स्वयं भी तय कर सकते हैं कि शिक्षक जब कलम उठाता है तो उसकी लेखनी में कहीं न कहीं स्कूल, बच्चे, शिक्षा उनकी परिधि में आदतन आ ही जाते हैं।  

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