Wednesday, June 3, 2015

गुणवता के लिए शिक्षक प्रशिक्षण जरूरी



हाल ही में बिहार राज्य में शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए विश्व बैंक ने पैंतालीस हजार डाॅलर देने की घोषणा की है। इस राशि को देने के पीछे तर्क यह दिया गया कि बिहार में शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट का एक बड़ा वजह वहां के शिक्षकों में प्रशिक्षण की कमी है। इन पैसों के आधार पर बिहार के प्रारम्भिक शिक्षकों को प्रशिक्षण प्रदान किया जाएगा। कहा यह भी गया है कि यदि बिहार में सभी बच्चों को स्कूल में दाखिल करना है तो उतने ही शिक्षकों की आवश्यकता भी पड़ेगी और इस लिहाज से वहां के शिक्षक पर्याप्त नहीं हैं। शिक्षकों की कमी भी इन्हीं आर्थिक सहायता राशि से दूर की जाएगी। यूं तो पूरा ही देश शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है। दिल्ली से लेकर झारखंड़ तक। जम्मू से लेकर कन्या कुमारी तक हर राज्य में हजारों के पद खाली पड़े हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार शिक्षकों की कमी भी 31 मार्च 2013 तक पूरी कर ली जानी थी। शिक्षकों की को लेकर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय समय पर सरकार से जवाब तलब किए हैं लेकिन परिणाम में कोई अंतर नहीं देखाई दिया। हालात वहीं के वहीं हैं। आरटीई के प्रावधानों के अनुसार 25 एवं 31 बच्चों पर एक शिक्षक होने चाहिए। वे शिक्षक प्रशिक्षित होने चाहिए इसकी वकालत और सिफारिश आरटीई करती है। लेकिन देश के अधिकांश सरकारी स्कूलेां में स्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं। राज्यों में प्रशिक्षित शिक्षक नहीं हैं। बारहवीं और बीए, एमएम पास छात्रों को तदर्थ पर शिक्षण कर्म में लाया जा रहा है। गौरतबल है कि 2010 के आसपास बिहार में गांधी मैदान में खुलआम नियुक्ति पत्र बांटे गए थे। लेकिन आरटीई के अनुसार नियुक्ति के दो वर्ष के भीतर उन शिक्षकों को प्रशिक्षण मुहैया कराना राज्य सरकार की जिम्मेदारी बताई गई थी। इसी तर्ज पर उत्तर प्रदेश राज्य में भी हजारों की संख्या में शिक्षकों के रिक्तों को भरा गया था।
शिक्षा की गुणवत्ता का जहां तक प्रश्न है तो कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जहां एक ओर जिला प्रखंड़ शिक्षण संस्थान यानी डाईट की स्थापना की गई है। वहीं विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम एवं पाठ्यक्रम चलाए गए। इन संस्थानों की स्थापना के पीछे मकसद यही था कि राज्यों में शिक्षकों की प्रशिक्षण गुणवत्ता सुनिश्चित की जाएगी। लेकिन जिन हालात में इन संस्थानों से छात्र निकलते हैं उनकी शैक्षिक समझ और शिक्षण गति को देखकर लगता है इनके द्वारा कक्षा में किस प्रकार शिक्षण किया जाता होगा। हर साल गैर सरकारी और सरकारी आंकड़े जारी किए जाते हैं जिन्हें देखकर चिंता गहरी हो जाती है कि हम अपने बच्चों को किस प्रकार की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया करा रहे हैं। हमारे बच्चे प्राथमिक स्तर पर कक्षा एक व छः कक्षा की भाषायी समझ और गणित के सामान्य से हल नहीं कर पाते। भाषा और गणित के अलाव विज्ञान और सामान्य विज्ञान की समझ भी उनकी कक्षा और उम्र के अनुसार नहीं है। क्या हमारी प्रशिक्षण और शिक्षण विधि पर एक बड़ा सवाल खड़ा नहीं करता। क्या हमें हमारी शिक्षा की पतली होती धारा दिखाई नहीं दे रही है? यदि हम इस प्रवृति को अभी नहीं देख पा रहे हैं तो निश्चित ही आने वाले वर्षांे में हम किस प्रकार के पौध बो रहे हैं इसका अनुमान होना चाहिए।
शिक्षकों के प्रशिक्षण को लेकर सरकारी और गैर सरकारी तंत्र अपने अपने तरीके से प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रही हैं, लेकिन विचार करने की आवश्यता यह है कि इन संस्थानों में दी जाने वाली प्रशिक्षण औजारों की गुणवत्ता कितनी है? किस स्तर की प्रशिक्षण दक्षता उनमें प्रदान की जा रही है। क्या महज अंकों के पहाड़ खड़े किए जा रहे हैं? क्या सिर्फ परीक्षा पास करने की तालीम दी जा रही है या आगामी वर्षों में शिक्षा को किस प्रकार की चुनौतियां से सामना करना होगा इस ओर भी सचेत किया जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में आने वाले छात्र अमूमन पाठ्यपुस्तकों के अलावा कुछ भी पढ़ाना नहीं चाहते। वे अपनी पाठ्यपुस्तकों को भी महज अंकीय दृष्टि से ही पढ़ते हैं। उन्हें जो अन्य सहायत पुस्तकें बताई जाती हैं वे पढ़ना उन्हें वक्त जाया करना सा लगता है। यही वजह है कि शिक्षण कर्म में आने के बाद उनकी शैक्षिक लेखन, शोध पत्रों आदि अकादमिक गतिविधियों में रूचि नहीं पैदा हो पाती। क्या इस रूचि के पैदा करने में उनके शिक्षकों के योगदान को नकारा जा सकता है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...