Thursday, June 4, 2015

कहां हो उर्दू




कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों पूर्वी दिल्ली नगर निगम के उर्दू शिक्षकों के लिए टेक महिन्द्रा फाउंडेशन में तीन दिवसीय उर्दू शिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में तकरीबन 11 प्रतिभागियों की सहभागिता रही। यूं तो पूर्वी दिल्ली नगर निगम में उर्दू माध्यम में पढ़ाने वाले कम से कम 200 शिक्षक हैं। अकेले पूर्वी दिल्ली नगर निगम में 17 उर्दू माध्यम के स्कूल चल रहे हैं। लेकिन प्रशिक्षण कार्यशाला में अनुपस्थिति बताती है कि हम कितनी संजीदगी से उर्दू और उर्दू शिक्षण को लेते हैं। जो आए थे उनकी खुद की उर्दू की समझ जिस स्तर की थी उसे देखकर अंदाजा लगाना कठिन नहीं था कि इनके द्वारा कक्षा में किस गंभीरता के साथ उर्दू पढ़ाई जाती होगी। हमलोग अक्सरहां तमाम रिपोर्ट के हवाले से कहते रहते हैं कि कक्षा 6 ठीं व आठवीं में पढ़ने वाले बच्चों को कक्षा 2 री व तीसरी की भाषायी समझ और गणित की दक्षता नहीं है। यहां तो एम ए और बी एड किए हुए उर्दू शिक्षकों का आलम यह था कि उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि उर्दू में कितने वर्ण होते हैं और तलफ्फुज़ कैसे दुरुस्त करें। बच्चों को अलिफ, बे, पे ते से आदि वर्णों को कैसे पढ़ाएं यह तो दूर की बात है। किसी भी भाषा के कौशलों की जब बात की जाती है कि उसके चार कौशलों की बात किए बगैर हम आगे नहीं बढ़ सकते। सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। उर्दू शिक्षण में अल्फाजों को कैसे बोलें, लिखें और पढ़ें इन कौशलों के विकास के लिए शिक्षक अभी भी पुरानी तरकीबें ही अपना रहे हैं। गौरतलब है कि दिल्ली में उर्दू माध्यम के स्कूल और शिक्षकों की ख़ासे कमी है। उर्दू माध्यम के शिक्षकों की नियुक्ति 1990 के बाद नहीं हुई।
बतौर एक अध्यापिका, ‘अब बच्चे उर्दू माध्सम से पढ़ना नहीं चाहते।’ वजह बताती हैं कि कई बार हमारे पुराने बच्चे जो अब छठीं व आठवीं में आ चुके हैं वे बताते हैं कि उन्हें उर्दू में पढ़ाने वाला कोई नहीं है। विज्ञान, गणित, समाज विज्ञान को उन्हें हिन्दी माध्यम में पढ़ाया जाता है उन्हें कुछ भी समझ नहीं आता। यह एक बड़ा कारण है कि बच्चे तो बच्चे बच्चों को अभिभावक भी खुद अब नहीं चाहते कि उनका बच्चा उर्दू माध्यम से तालीम हासिल करे। क्योंकि जैसे जैसे बच्चे उपर के दर्जें में दाखिल होते हैं उन्हें उर्दू माध्यम में तालीम मुहैया नहीं कराई जातीं। ऐसे में बच्चे हतोत्साहित होते हैं।
यदि उर्दू जुबान की बात करते हैं तो पुरानी दिल्ली और ज़ाफराबाद की उर्दू में भी फ़र्क मिलता है। जिस किस्म की उर्दू के उच्चारण हमें पुरानी दिल्ली में सुनने को मिलती है वह दिल्ली के दूसरे कोनों में बोली जाने वाली उर्दू से कहीं अलग है। उर्दू बतौर भाषा एवं विषय के तौर पर पूरे भारत में पढ़ाई जा रही है लेकिन अफसोसजनक बात यह है कि इस भाषा के साथ राजनीतिक बरताव तो होते हैं किन्तु इस भाषा के विकास और उन्नयन के लिए पुख्ता कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।
अक्सर भाषायी गोष्ठियों में यह सवाल बड़ी शिद्दत से उठायी जाती है कि उर्दू और हिन्दी को दो नजरिए से देखा जाता रहा है। एक ओर हिन्दी और दूसरे मुहाने पर खड़ी उर्दू हमेशा से ही उपेक्षित रही है। जबकि यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि आमफहम ही भाषा में उर्दू का समावेश जिस सहजता के साथ होता आया है उसे देखते सुनते हुए इसका इल्म भी नहीं होता कि हिन्दी में उर्दू इस कदर गुम्फित है कि उसे निकालना संभव नहीं है। यदि उर्दू, अरबी, फारसी के शब्दों को हिन्दी से कान पकड़कर बाहर कर दें तो वह हिन्दी कैसी होगी इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। हाल ही में मानव संसाधन मंत्रालय को सुझाव दिए गए कि हिन्दी से उर्दू, अरबी, फारसी के शब्दों मसलन दोस्त, अखबार, दफ्तर, बाजार जैसे शब्दों को निकाल बाहर करना चाहिए। इसके पीछे के तर्क को सुन कर हंसी ही आ सकती है कि इससे हिन्दी खराब हो रही है। इस तरह हिन्दी अशुद्ध हो रही है। इन तर्कों की मनसा पर ठहर कर विचार करें तो पाएंगे कि यह एक ख़ास वैचारिक पूर्वग्रह से उठाई गई मांग है। जबकि भाषा विज्ञान और भाषाविद् की दृष्टि से विचार करें तो पाएंगे कि किसी भी भाषा में विभिन्न बोलियों, भाषाओं के शब्द उन्हें खराब करने की बजाए उन्हें सवंर्धित ही करते हैं। वह चाहे हिन्दी हो उर्दू हो या फिर अन्य भाषाएं।
प्रेमचंद ने शुरूआती दौर में हिन्दी मंे नहीं लिखा करते थे। प्रेमचंद साहित्य के जानकार इस बात से वाकिफ हैं। उनकी पहली हिन्दी कीह कहानी तकरीबन 1916 के आसपास आती है। उससे पहले प्रेमचंद की लेखकीय भाषा हिन्दी नहीं थी। इस तथ्य से भी मुंह नहीं मोड़ सकते कि भाषा की छटाएं विभिन्न भाषा-बोलियों के शब्दों से और भी प्रभावकारी हो जाती हैं। जो लोग भाषायी शुद्धता के तर्क पर हिन्दी और उर्दू को अलग करना चाहते हैं उन्हें इसपर भी विचार करना होगा कि क्या वे गंगा जमुनी संस्कृति यानी हिन्दी-उर्दू की मिलीजुली तहजीब को विलगाना चाहते हैं? क्या वे चाहते हैं कि भाषायी संघर्ष और भाषायी फांक को बढ़ाया जाए।
आज उर्दू की हालत कुछ तो राजनीति और कुछ भाषायी शुद्धतावादियों की वजह से खराब है। यदि उर्दू भाषा को एक खास वर्ग,जाति, धर्म एवं संप्रदाय के अलग कर के देखने की कोशिश करें तो पाएंगे  िकवह जुबान हमारे हिन्दुस्तानियों की आज भी रही है। आजादी के बाद की जो पीढ़ी जिंदा है वो आज भी पंजाबी एवं हिन्दु परिवार उर्दू के अखबारों को चाव से पढ़ते है। उनकी पंजाबी भी कहीं न कहीं उर्दू के साथ गलबहियां किया करती है।


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