Thursday, November 6, 2014

गांवों को निगलते शहर


कौशलेंद्र प्रपन्न
प्रेमचंद, निराला, श्रीलाल शुक्ल, रेणू के गांव अब वही नहीं रहे। गांव खत्म होते जा रहे हैं। इसे आधुनिकीकरण का नाम दें या एक परंपरा, रीति रिवाजों वाले गांवों के खत्म होने पर आंसू बहाएं। शहर की भीड़ और औद्योगिकरण ने गांव का रंग रूप बदल दिया है। वह गांव देश के किसी भी राज्य का क्यों न हो गांव की बुनियादी पहचान लुप्त होता दिखाई दे रहा है। शहर की तमाम चाक चिक्य, फैशन, दिखावा, व्यवहार, चालाकियां, धुर्तता सब कुछ गांव में प्रवेश कर चुका है। गांव के तालाब, नदियां, पोखर खेतों को पाट कर माॅल, दुकान, नए नए उद्योग लगाए जा रहे हैं। वहां का भूगोल भी बहुत तेजी से बदल रहा है। हमारी स्मृतियों में बसे गांव और गांव की छवि भी बदल चुकी है। हम स्वयं महानगर में रहना पसंद करते हैं। लेकिन जब गांव में जाते हैं तो अपने गांव को वही पुराने रंग, चाल ढाल में क्यों देखना चाहते हैं। क्या गांव में रहने वालों को माॅल में ठंढ़ी हवा खाते हुए शाॅपिंगे करने का अधिकार नहीं है? क्या गांववासियों को शहर की सुख सुविधाएं में जीने का हक नहीं है? क्योंकर वो गांव में बजबजाती गलियों में रहने पर विवश हों?
जिस भी गांव के पास से कोई एक्सप्रेस वे दंदनाती सड़क निकलने वाली है या निकल चुकी है उस गांव की किस्मत कहें या चेहरा बड़ी ही तेजी से बदल रहा है। गांव में पक्के मकान बन रहे हैं। खेत काट कर दुकान और माॅल का निर्माण रफ्तार पकड़ चुका है। गाय भैंसे बेची जा चुकी हैं। गली गली मुहल्ले मुहल्ले प्रोपर्टी डिलर बन कर हमारे नवनिहाल बैठ चुके हैं। जिनके पास एकड़ों जमीन हुआ करती थीं। जो गांव के जमींदार हुआ करते थे आज वो जमीनें बड़े बड़े भवन निर्माण कंपनियों को दे कर स्वयं एक छोटे मोटे प्रोपर्टी डिलर बनना स्वीकार किया है। गांवों में भी पक्की सड़कें फैलें इससे किसी को क्या गुरेज होगा। लेकिन इन सड़कों और माॅलों की वजह से यदि हमारी जीवन पद्धति प्रभावित हो रही हो तो हमें गंभीरता से विचार करना होगा।
जब जब शहर या महानगर का विस्तार गांवों तक हुआ है उसमें गांवों को कई स्तरों पर मूल्य चुकाने पड़े हैं। उसमें हमारी जीवन शैली, जीने की शर्तें और खेत खलिहानों को गला घोटा गया है। गांव के स्थानीय लोगों का विस्थापन और दूसरे गांव, शहर से लोगों आगमन यह एक सामान्य प्रक्रिया मानी जाती है। गांव से शहर और महानगर में बसने के लोभ से बहुत कम लोग बच पाए हैं। जिसके पास भी थोड़ी भी संभावना और सुविधा है वो गांव में नहीं रहना चाहता। गांव उसके फैलाव के लिए सीमित आकाश सा लगता है। संभव है यह कुछ हद तक ठीक भी हो। क्योंकि इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि जो सुविधाएं, अवसर हमें शहरों और महानगरों में लिती हैं वह गांव की सीमा से बाहर है। यही कारण रहा है कि गांवों, कस्बों से लोगों का शहर की ओर पलायन जारी रहा है। हर मां-बाप चाहते हैं कि उनकी औलादें अच्छी तालीम और सुख सुविधाओं वाली जिंदगी हासिल करे। मेरे पिताजी ने खुद अपना गांव छोड़ और शहर में जा बसे ताकि बच्चों को शहर की सुविधाएं मिल सकें। हमें अच्छी तालीम मुहैया कराने के लिए स्वयं फटी धोती पहनना स्वीकार किया। अकेले कस्बे में रहना भी चुना। दरअसल गांवों की सीमित संसाधनों और माध्यमों के बीच उड़ान के पंख खुलने मुश्किल से जान पड़ते हैं। इसलिए गांव में रहने और वहां पलायन करने के बीच बहुत बारीक का अंतर होता है।
पिछले दिनों हरिद्वार, डेहरी आॅन सोन, हनुमान गढ़ जाना हुआ। जिन जिन गांवों व शहरों के पास से चैड़ी एक्सप्रेस वे गुजर रही हैं वहां की बुनियादी स्थानीय पहचान खत्म हो रही हैं। उसमें नदी, तालाब, पोखर, खेत आदि शामिल हैं। इसके साथ ही जिस तेजी से गांवों में शहर के संचार माध्यम पांव पसार रहे हैं उस अनुपात में शिक्षा संस्थान नहीं ख्ुाल रहे हैं। शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता उनकी प्राथमिकता की सूची में नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता के बजाए महज गांव कस्बों, छोटे शहरों में शिक्षा की दुकानें खुल रही हैं। ऐसे में कौन गांव में रहना चाहेगा? कौन अपने बच्चों के भविष्य दांव पर लगाएगा। शायद यही वजह है कि शहर के विस्तार ने गांवों को निगलना शुरू कर चुका है। वह दिन दूर नहीं जब गांव हमारी स्मृतियों का हिस्सा भर हुआ करेंगी। किताबों और फिल्मों में गांव देखा और पढ़ा करेंगे।

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