Friday, November 28, 2014

सरकारी स्कूलों को भी गोद लीजिए


कौशलेंद्र प्रपन्न
माहौल बन चुका है। प्रधानमंत्री जी के पहल पर मंत्रियों और सांसदों से अनुरोध है कि जिस तरह से आदर्श गांव निर्माण के लिए गांवों को गोद लिए जा रहे हैं उसी तर्ज पर यदि सरकारी स्कूलों को भी गोद लिया जाए तो हमारे सरकारी स्कूलों की भी कायापलट हो सकती है। यह तथ्य किसी से भी छूपा नहीं है कि हमारे सरकारी स्कूलों को एक सिरे से नकारा साबित करने में तमाम कोशिशें की जा रही हैं। सच यही है कि आज भी गांव देहात में बच्चे सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर हैं। यह अलग बात है कि जो सरकारी स्कूल गांव- कस्बों में चल रही हैं वो किस हालात में जिंदा हैं इस ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है। सिर्फ और सिर्फ सरकारी स्कूलों के हिस्सा घृणा और उपेक्षा ही मिलती है। यह कितना बेहतर हो कि हमारे स्थानीय निकाय के लोग और सिविल सोसायटी के लोग अपने आस-पास के सरकारी प्राथमिक स्कूलों को बेहतर बनाने के लिए आगे आएं।
दिल्ली के वेस्ट पटेल नगर में 22 ब्लाॅक में टीन और अल्बेस्टर के नीचे नगर निगम प्रतिभा विद्यालय चल रहा है। इस स्कूल में कई बार हादशे हो चुके हैं। यहां की प्रधानाचार्या ने बताया कि कई बार प्रार्थना के वक्त तो कई बार कक्षा में भी पेड़ और भवन की दीवार गिरने जैसी घटना हो चुकी है। प्रधानाचार्या ने बताया कि इस स्कूल के भवन ‘‘झोपड़ी’’ को खतरनाक घोषित किया जा चुका है। लेकिन अभी तक हम इसी में पढ़ाने के लिए विवश हैं। गौरतलब है कि इस स्कूल में दो स्कूलों के बच्चे/बच्चियां भी पढ़ती हैं। वेस्ट पटेल नगर के 28 एस ब्लाॅक के नगर निगम प्रतिभा विद्यालय के बच्चे भी इसी स्कूल में इसलिए पढ़ते हैं क्योंकि उनके नए बने भवन में दरारें आने की शिकायत आई थी। उसे दुरूस्त करने के नाम पर पिछले दो सालों से उस स्कूल के बच्चे भी इसी स्कूल में सीमित कक्षाओं में बैठते हैं। हालात यह है कि एक कक्षा में दो और तीन कक्षाओं के बच्चे एक साथ बैठते हैं।
वेस्ट पटेल नगर के एस ब्लाॅक की प्रधानाचार्या से बातचीत में पता चला कि इन्होंने जब से भवन में खराबी की शिकायत की है तब से समस्याएं कम होने की बजाए बढ़ी हैं। कई बार शिकायत दर्ज कराने के बावजूद भी कोई देखने वाला नहीं है। नए बने स्कूल भवन में न तो पानी की व्यवस्था है और शौचालय में पानी की भी पूरी आपूर्ति होती है। भवन तो बन गए लेकिन बुनियादी चीजें महज बना दी गईं वो इस्तमाल में नहीं लाई जा सकतीं। स्कूल की दीवार इतनी नीची है कि आस पास के लड़के/ स्थानीय लोग कूद कर अंदर आ जाते हैं और स्कूल की गतिविधियों में व्यवधान पैदा करते हैं। ऐसे में हमारे सरकारी स्कूलों को कौन संभालेगा यह एक गंभीर मसला है।
गंगा को स्वच्छ बनाने के अभियान में जितना पैसा खर्च किया गया और किया जा रहा है काश कि उसका एक अंश भी हमारे सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के लिया मिल पाता तो आज इनकी स्थिति यह नहीं होती। यहां दिल्ली के कुछ स्कूलों की दास्तां बयां की गई है। हम कल्पना कर सकते हैं कि अन्य राज्यों में सरकारी स्कूलों की क्या स्थिति होगी। आरटीई के लागू होने के बाद भी हमारे सरकारी स्कूल तमाम बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। माॅलों के निर्माण में हम पैसे खर्चने से ज़रा भी पीेछे नहीं हटते लेकिन सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने की बात आती है तब हमारा दम फुलने लगता है। तब हम निजी कंपनियों और बाहरी मदद के लिए मुंह ताकने लगते हैं। यदि गंगा को स्वच्छ बनाने और गांव को आदर्श ग्राम के लिए गोद लिए जा सकते हैं तो सरकारी स्कूलों को गोद लेने में हम क्यों हिचकिचा रहे हैं। क्या हमारी प्राथमिका की सूची में स्कूल और प्राथमिक शिक्षा शामिल नहीं हो सकती?
यूं तो निगमित सामाजिक जिम्मेदारी यानी काॅर्पोरेट सोशल रिस्पांसब्लिटी जिसे सीएसआर के नाम से जानते हैं इसके तहत कई सीएसआर गतिविधियां चलाई जा रही हैं। उनमें से टेक महिन्द्रा फाउंडेशन की पहलकदमी को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। टीएमएफ ने पूर्वी दिल्ली नगर निगम के स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बहाल हो सके इसके लिए अप्रैल 2013 में इडीएमसी के साथ एक समझौता पत्र पर दस्तखत किया था। इस बाबत दिलशाद गार्डेन के ए ब्लाॅक में अंतःसेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान की स्थापना की गई। तब से यह संस्थान शिक्षकों की दक्षता विकास को लेकर प्रतिबद्ध है। अब तक इस संस्थान में तकरीबन 1000 शिक्षक और 250 प्रधानाचार्यों की विभिन्न विषयों पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जा चुका है। उसी प्रकार अन्य निजी प्रयास भी सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने के लिए चल रही हैं। एक बारगी सरकार के माथे पर ठिकरा फोड़ना तो आसान है लेकिन हमें हमारे निजी और सार्वजनिक प्रयासों पर भी नजर डालना होगा। हमारे माननीय सांसादों, विधायकों की कार्य सूची में सरकारी स्कूलों को कैसे बेहतर बनाया जाए और वो अपने स्तर पर स्कूल को सुचारू बनाने में क्या योगदान कर सकते हैं इसकी योजना बनानी होगी।
स्रकारी स्कूलों में हालात यह हैं कि एक तरफ आरटीई के वकालत और सिफारिशों के बावजूद स्कूलों में पीने का पानी, शौचालय, कक्षा में ब्लैक बोर्ड, खेल के मैदान मयस्सर नहीं हैं। उस तुर्रा यह कि जिसे देखो बिना जमीनी हकीकत को जाने सीधे सीधे सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है इस घडि़याली आंसू बहाने में लगे हैं। कितना बेहतर हो कि स्थानीय नागर समाज अपने पड़ोस के स्कूल को अपनी दक्षता का लाभ मुहैया कराने के लिए आगे आएं। मसलन यदि कोई व्यक्ति एकाउंट, गणित, भाषा, आर्ट एंड का्रफ्ट आदि विषय में अच्छी गति रखता है तो वह सप्ताह या माह में जिस भी दिन उसके पास वक्त हो वह सरकारी स्कूल में बच्चों के साथ अपने अनुभव साझा करंे। स्थानीय नागर समाज अपने सरकारी स्कूलों को गोद लें। सरकार की ओर से जिस तरह की कोशिशें की जा रही हैं उससे ज्यादा उम्मीद भी नहीं कर सकते।

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