Friday, October 31, 2014

31 अक्टूबर 1984 की शाम


मैं उन दिनों हरिद्वार में था। शाम होते ही हरिद्वार में चारों ओर अफरा तफरी मच गई। बगल के गुरूद्वारे से बर्तन-भांड़ गंगा में फेंके जा रहे थे। सिक्ख कहीं भी नजर नहीं आ रहे थे। जो दिखाई देता वो मारा जाता। सिक्खों की दुकानों, होटलों को लूट कर भागने वाले भीड़ का कोई चेहरा न था। जिसके हाथ में जो लगा वो उसे ही लेकर भाग रहा था। किसी के सिर पर टीवी थी तो किसी के सिर पर फ्रीज। पूरी जिंदगी जिसने जमीन पर देह सीधा किया अब उसके पास सोने के लिए पलंग और सोफे हो गए थे।
अपनी इन्हीं नन्हीं आंखों के सामने देखा कि हरिद्वार के देवपूरा के पास सड़क पर एक सिक्ख युवक के गले में टायर डाल कर जिंदा जला दिया गया। समझ उतनी पक्की नहीं थी लेकिन वह दृश्य देखकर दिल दहल गया।
रेल गाडि़यों में सिक्खों की लशें भर कर हरिद्वार आ रही थीं। गंगा में सिक्खों की दुकानों, घर, गुरूद्वारों की सामनें बह रही थीं। समझ नहीं आ रहा था कि इंदिरा जी को जिसने भी मारा इसमें इन बेगुनाह सिक्खों का क्या दोष था? क्या किया था उस युवक ने जिसकी गर्दन में टायर डाल कर जला दिया गया। उस दुकान वाले सुखबीर ने ही क्या किया था जिसकी छोटी सी चूड़ी कंघे की दुकान उस दंगे में बरबाद हो गई।
चारों तरफ सन्नाटा और शोर दोनों ही था। जिनके घर,परिवार और दुकानें बर्बाद हो रही थीं उनके आंसू नहीं रूक रहे थे। और जिनकी आंखों के सामने बेटा ज लाया जा रहा था उनने पूछिए उन पर क्या बीत रही थी?
जो भी हो बचपन में ही देखने को मिला कि गरीब, गैर सिक्ख परिवारों के पास टीवी, पलंग, फ्रीज, और भी वे चीजें जो दुकान से लूटी गई थीं वो साफ नंगी आंखों से देखी जा सकती थीं।
ओफ! वे भी क्या काले दिन थे और काली रात थी जब अपना ही पड़ोसी दहशत में रात गुजार रहा था।  जिन्ने अपनी जान गंवाई उन उन आत्माओं को सादर नमन

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