Wednesday, November 19, 2014

कक्षा और शिक्षा में संवाद


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा दर्शन और शिक्षा का शिक्षण शास्त्र हमेशा इस बात की गुंजाइश छोडता है कि हम अपनी जिज्ञासा और सवाल कर सकें। शिक्षा दरअसल हमारी जिज्ञासाओं और उत्कंठाओं को उद्दीप्त करने काम करती है। यदि हमारे अंदर सवाल करने और जिज्ञासाओं को शांत करने की छटपटाहट नहीं होगी तो समझना चाहिए हमारे अंदर सीखने की ललक खत्म हो चुकी है। यहीं पर शिक्षा बीच में टूटती नजर आती है। यदि शिक्षा छात्र के मन से सवाल करने की बेचैनीयत ही खत्म कर दे तो वह शिक्षा नहीं हो सकती। यदि उपनिषद् पर नजर डालें तो को अहम्? को नामासि? सवाल से ही जुझता हुआ विद्यार्थी मिलता है। इसी को अहम के जवाब में उपनिषद् की रचना हुई। गुरु जवाब देता है- तत् तत्वं असि। तब विद्यार्थी को महसूस होता है कि अहं ब्राम्हास्मि।
यहां शिक्षा जीवन के बुनियादी सवालों से शुरू होते हैं। उसपर भी संवाद शैली में। यहां किसी भी किस्म का उपदेश, प्रवचन या कोई और माध्यम नहीं अपनाया गया है बल्कि संवाद शैली में यह पूरा का पूरा शैक्षिक प्रक्रिया संपन्न हो रही है। यदि आज की शैक्षिक प्रक्रिया को देखें तो वह उपदेशात्मक ज्यादा बजाए कि वह संवाद शैली में हो। समस्या यही है कि जब हम बातचीत की शैली में किसी को कुछ समझाते हैं तब सुनने वाला जल्द समझ लेता है। लेकिन जैसे ही भाषण के रूप में कोई बात रखते हैं तब की हमारी भाषा भी बदल जाती है।
प्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति कक्षा और शिक्षा में संवाद स्थापित करने पर जोर देते थे। इसका अर्थ लेकिन आज की कक्षा का अवलोकन करें तो संवाद की बजाए आदेश और निर्देश दिए जाते हैं। बच्चे उसे मानने पर मजबूर होते हैं। यदि बच्चा इंकार करता तो वह शिक्षक की सत्ता का प्रश्न बन जाता है। यही वजह है कि शिक्षक बच्चे के सवाल व स्वतंत्रता को अपनी सत्तायी चुनौती मान लेता है।
नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2005 शिक्षा में संवाद पर खासतौर पर विमर्श करता है। एनसीएफ के आधार बने पाठ्य पुस्तकों पर नजर डालें तो पाएंगे कि इन स्कूली किताबों के संवाद स्थापित करने की पूरी छूट और जगह मुहैया कराई गई है। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि शिक्षक कक्षा में कितना अमल में लाता है। अमूूमन कक्षाओं में शिक्षक महज पाठों के वाचक की भूमिका निभाते पाए जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा पाठों को याद करने और उनका अभ्यास कर परीक्षा में उगलने के लिए तैयार करते हैं। यदि यहां शिक्षक अपनी भूमिका को थोड़ी भी छूट दें तो संवाद करने की उम्मीद जग सकती है।


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