Wednesday, July 23, 2014

लड़की के आंगन में शिक्षा का उजाला



कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा का चरित्र है कि वो जेंडर को लेकर किसी भी किस्म का भेदभाव नहीं करती। शिक्षा की नजर में हर कोई शिक्षार्थी है। वह चाहे लड़की हो या लड़का। फिर क्या वजह है कि शिक्षा हासिल करने व प्राप्त करने में लड़कियों की संख्या लड़कों से कम है। वैश्विक स्तर पर लड़कियों की संख्या लड़कों से कमतर है। इसके पीछे के कारणों पर रोशनी डालें तो पाएंगे कि अभी भी हमारा समाज स्टीरियो टाइप के सोच से बाहर नहीं निकल सका है। यदि ईएफए ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट 2013-14 पर नजर डालें तो बड़ी गंभीर निराशा होती है। लड़कियां तो लड़कियां यहां तक कि लड़के भी शिक्षा ये महरूम हैं। ऐसे बच्चों की संख्या तकरीबन 7 करोड़ के आस पास है। यूं तो शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 सभी बच्चों ;6 से 14 वर्षद्ध को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा मुहैया कराने का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन आरटीई एक्ट के लागू होने के बावजूद भी विभिन्न राज्यों की स्कूली शिक्षा से लड़कियां बाहर हैं। इसके पीछे दो महत्वपूर्ण कारण पहचाने गए हैं। पहला, स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय का न होना। दूसरा, समाज एवं परिवार की नजर में लड़कियां शिक्षा हासिल करें इसकी आवश्यकता ही महसूस नहीं की जाती। सब के लिए शिक्षा 1990 यानी ईएफए के लक्ष्यों में ल़ड़कियों और लड़कों के बीच के फांक को कम करने और जेडर समानता लाना, शामिल किया गया था। लेकिन 2000 में डकार में हुए सम्मेलन में देखा गया कि अभी भी हमारा ईएफए का लक्ष्य बहुत दूर है। यही वो आधार भूमि है जिसने सर्व शिक्षा अभियान, राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान, शिक्षा का अधिकार अधिनियम को जन्म दिया। ताकि हम 2015 तक ईएफए के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। लेकिन वस्तुस्थिति को देखते हुए बेहद निराशा होती है। हालांकि आंकड़ों को देखते हुए यह जरूर कहा जाता है कि लड़कियां हर साल दसवीं और बारहवीं की कक्षाओं में लड़कों को पछाड़ कर आगे निकल रही हैं। यह इसका एक पहलू है। दूसरा पहलू यह भी सामने है कि फिर क्या वजह है कि इन लड़कियों की उपस्थिति उच्च शिक्षा में नदारत है।
इल्म की रोशनी निश्चित ही लड़कियों की जिं़दगी को ही रोशन नहीं करती बल्कि समाज और परिवार के अन्य सदस्यों को भी प्रभावित करती हैं। यहां भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या शिक्षा का मायने जो लड़कों के लिए है वही अर्थ लड़कियों के लिए भी है? समाज और परिवार में घटने वाली घटनाओं के अनुभव इससे बिल्कुल उलट हैं। माना जाता है कि लड़कियां पढ़ लिख कर क्या करेंगी। इन्हें तो आखिर में चूल्हा ही फूंकना है व घर गृहस्थी में ही लगना है। हमारी एकल मानसिकता एक किस्म से लड़कियों के लिए शिक्षा के दरकार को सीमित ही करती है। जबकि लड़की व लड़का पहले एक इंसान है। उसके बाद वह लड़का व लड़की है। जेडर के लिहाज से हमें उन्हें शिक्षित करना और इस किस्म की तालीम मुहैया कराना आवश्यक है कि वो जीवन को बेहतर तरीके से जी सकें। परिवार और समाज में सकारात्मक भूमिका निभा सकें।
शिक्षा लड़कियों को एक औजार प्रदान करती है जिसके जरिए वह समाज और समाजिकरण की प्रवृत्ति को बेहतर ढंग से समझ सकें। वह अपनी भूमिका और क्षमता का इस्तमाल कर सकें। लेकिन व्यवहारिक स्तर पर देखें तो एक गहरी खाई दिखाई देती है। वह खाई हम नागर समाज ने बनाए हैं। हम नहीं चाहते कि लड़कियां यानी स्त्री शिक्षित हो। हम नहीं चाहते कि वर्ग पढ़ लिख कर हमारी समझ और सत्ता को चुनौती दे। एक एक तरह से पुरुष का डर है जो लड़कियों को शिक्षा की मुख्य धारा से अलग रखना चाहता है। वह चाहता है कि यह वर्ग हम पर ही निर्भर रहे। और यह तभी संभव है जब इनकी जिं़दगी से शिक्षा बाहर रहेंगी।
जेंडर समानता और सब के लिए शिक्षा को लक्ष्य बनाने के पीछे नागर समाज का दरकार यह था कि आजादी के इतने वर्षां के बाद भी इनकी जिंदगी में इल्म की रोशनी पूरी तरह से नहीं फैल पाई है। इनका एक बड़ा हिस्सा अभी भी काला स्याह है। इसको दूर करने के लिए हमने अंतरराष्टीय स्तर पर कुछ घोषणाएं की। उन घोषणाओं में एजूकेशन फाॅर आॅल 1990, डकार घोषणा पत्र 2000, सहस्राब्दि विकास लक्ष्य आदि में हमने लड़कियों की शिक्षा एवं विकास को रखा। इसके पीछे वजह इतनी सी थी कि विश्व एक ओर तो विकास के राजपथ पर सरपट भाग रहा था वहीं हमारे गांव देहात, शहर कस्बे की लड़कियां अभी भी इल्म की दौड़ में पिछड़ रही थीं। अंतरराष्टीय स्तर पर हमारी साख पर बट्टा लग रहा था। हमने स्वेच्छा से शिक्षा के अधिकार कानून नहीं बनाए बल्कि वह अंतरराष्टीय दबाव काम कर रहा था।
ईएफए के छह लक्ष्यों में जेड़र समानता यानी लड़के लड़कियों के बीच के अंतर को पाटना भी शामिल किया गया था। यहां यह स्पष्ट करते हुए चलना उचित है कि ईएफए और सहस्राब्दि विकास लक्ष्य में हमारी कोशिश यह है कि हम लड़कियों को न केवल साक्षर बनाएं बल्कि उन्हें शिक्षित करें। वो शिक्षा के मायने को समझें और शिक्षा की कड़ी को बढ़ान में अपनी रचनात्मक सहभागिता दें। पाॅलो फ्रेरे ने अपनी किताब उत्पीडि़तों कि शिक्षा शास्त्र में जिक्र करते हैं कि सदियों से विकास की मुख्य धारा से कटे इस वर्ग में गुलामी को लेकर एक किस्म का मोह और जड़ता की स्थिति बन जाती है। यथास्थितिमवाद को बरकरार रखने में इन्हें सहजता महसूूस होती है। यही वजह है कि जब बदलाव और शिक्षा की बात की जाती है तो एक अप्रत्याशित भय इन्हें घेर लेता है।  

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