Tuesday, July 22, 2014

विद्यालय या कूटालय



कौशलेंद्र प्रपन्न
कई बार ताज्जुब होता है कि क्या हमारे बच्चे विद्यालय में जा रहे हैं या कूटालाय में। जहां हर दिन कोई न कोई बच्चे कूटे जाते हैं। हाल ही में स्कूल के प्रांगण से इस तरह की ख़बर बंग्लूरू और हैदराबाद, आंध्र प्रदेश से आई है। एक ओर प्रधानाचार्य बच्चे को डंडे से लगातार पीट रहा था। इस बाबत न्यूज चैनल पर दिखाई गई तस्वीर एवं वीडियो एकबारगी शिक्षक की क्रूरता को सामने ला रहा था। जिसने भी देखा और सुना उसके रोगटे खड़े हो गए होंगे। इतना ही नहीं शिक्षक और स्कूल अभिभावकों को लुभाने की बजाए डरा रहे होंगे। दूसरी घटना स्कूल परिसर में बच्ची के साथ व्यायाम शिक्षक ने बलात्कार किया। इस तरह की घटनाएं शिक्षा और स्कूल के प्रति आक्रोश और अविश्वास पैदा करते हैं।
जुबिनाइल जस्टिस एक्ट ;जेजे एक्टद्ध और राष्टीय बाल अधिकार एवं संरक्षण आयोग ;एनसीपीसीआरद्ध एवं राज्य स्तर पर ;एससीपीसीआरद्ध हर बच्चे के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इन घटनाओं को देखते हुए एनसीपीसीआर की अध्यक्ष ने तत्काल स्थानीय शिक्षा अधिकारी से जवाब तलब किया है। जेजे एक्ट और एनसीपीसीआर देश के हर बच्चे को सुरक्षा और प्रताड़ना से निजात दिलाने के लिए गठित की गई है। याद हो कि इस बाबत उच्च न्यायालय ने आदेश भी जारी किया था कि किसी भी स्कूल में शारीरिक दंड़ वर्जित है। लेकिन इस आदेश का माख़ौल तो समय समय पर उड़ाया ही जाता है साथ ही जेजे एक्ट की अवहेलना भी स्कूलों में खूब होती है।
गौरतलब है कि 1989 में यूनाइटेड नेशन्स कन्वेशन आॅन चाईल्ड राईट, यूएनसीआरसी89 ने विश्व के सभी बच्चों को जीने, सुरक्षा, सहभागिता आदि का अधिकार देता है। जो भारत में भी लागू है। लेकिन इन सब के बादजूद हमारे यहां निठारी जैसी घटनाएं होती है। न केवल निठारी बल्कि आज तो तकरीबन हर राज्य में ंस्कूलों और स्कूल के बाहर बच्चों को कूटा-पीसा जा रहा है। हमारे पास बाल आयाग से लेकर जेजे एक्ट आदि का कानूनन प्रवाधान भी है। फिर क्या वजह है कि बच्चों का शोषण एवं शारीरिक प्रताड़ना रूकने की बजाए बढ़ रहे हैं।
स्कूल की बुनावट व चरित्र पर नजर डालें तो स्थितियां कुछ स्पष्ट होंगी। एक क्लास में पचास, साठ, अस्सी बच्चे बैठते हैं। उन्हें पढ़ाने से लेकर खाना बांटने, वर्दी देने आदि का काम भी करना पड़ता है। ऐसे में शिक्षक व शिक्षिका मानसिक रूप से इतने खिन्न होते हैं कि कई बार उनकी व्यवस्थागत शिकायतें उनकी मानसिक शांति को तोड़ देती हैं। हमारे पास स्कूल पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 शिक्षकों के लिए शांति की शिक्षा की भी सिफारिश करती है। लेकिन गौर किया जाए तो शिक्षकों के लिए सरकार की ओर से आयोजित प्रशिक्षण कार्यशालाओं में किस तरह से शिक्षकों को सीखाया जाता है और शिक्षक किस मनोदशा से आते हैं यह एक चिंता का विषय है।
शिक्षा का अधिकार कानून बेशक पूरे देश में लागू हो चुका है। इसकी सिफारिशों पर गोष्ठियां, सेमिनार हो चुके हैं लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि आज भी दिल्ली और दिल्ली के बाहर राज्यों में सरकारी स्कूलों में एक कक्षा में पचास से ज्यादा बच्चे हैं। यूं तो 30ः1 का अनुपात की वकालत आरटीई करती है लेकिन अमूमन स्कूलों में कक्षाओं की स्थिति इससे बिल्कुल उलट है।
हैदराबाद एवं बंग्लूरू की घटना पर सरकारी स्कूलों के तकरीबन 120 बीस शिक्षक/शिक्षिकाओं से कार्य
शाला में बातचीत का अवसर मिला। उन्होंने तो सीधे कहा वह हैवान है। दरिंदा है शिक्षक नहीं है। इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि न तो सारे शिक्षक एक समान होते हैं और न उनकी मान्यता एवं मूल्य। हमें शिक्षकों की कार्यशालाओं का आयोजन योजनाबद्ध तरीके से करने की आवश्यकता है। साथ ही शिक्षकों का इन कार्यशालाओं में सकारात्मक मिल सके इसके लिए विशेषज्ञों की मदद ली जानी चाहिए।
समग्रता में देखें तो बच्चो की मार पिटाई आज कोई नई घटना नहीं है। यह स्कूलों में घटने वाली आम घटना है। इसे कैसे कम किया जाए व खत्म किया जाए इसके लिए शिक्षक वर्ग में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। वरना इस तरह के वारदात समस्त शिक्षक जाति पर प्रश्नचिंह्न लगाते हैं।

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