Thursday, August 9, 2018

सपने जो देखे वही मिले




कौशलेंद्र प्रपन्न
सपना देखने और पालने में किसी का कोई दबाव नहीं होता। हम सपने अपने लिए कई बार समाज के लिए और घर परिवार के लिए भी देखा करते हैं।
हम सब ने सपने देखे। बल्कि देखा करते हैं। हमारी लाइफ ऐसी हो जाए। यह हो जाए वह हो जाए आदि आदि। लेकिन सपनों को पूरा करने के लिए शायद प्रयास नहीं करते और सपने यूं ही बिखरा जाया करते हैं।
मैंने बचपन में या कॉलेज में सपने देखे थे कि एक लेखक,पत्रकार बनूं। यह सपना भी काफी हद तक पूरा हुआ। लिखने लगा। छपने भी लगा। दो किताबें भी लिखने की कोशिश कीं और सफल रहा।
दूसरा सपना यह भी था कि स्कूल कॉलेज में पढ़ाउं। स्कूल का सपना तो पूरा हुआ। कॉलेज हाथ से छूट गया।
मेरे भाई ने सपने देखे थे कि दिल्ली विश्वविद्यालय के आवासीय परिसर में वो रहें। यहीं पढ़ाएं। उनका सपना भी पूरा हुआ। आज वो इसी विश्वविद्यालय में पढ़ा भी रहे हैं और इसी परिसर में उनका घर भी है। आपने सपने पूरे करने के लिए उन्होंने मेहनत तो की ही साथ ही जिस प्रकार की तैयारी चाहिए उसे भी निभाया।
हमारे सपने पूरे होते हैं। हो सकते हैं। ज़रूरत बस इतनी सी है कि जो सपने हमने देखे हैं उन्हें कैसे पूरा करें इसकी रणनीति बनानी पड़ती है। और रणनीति को कैसे अमल में लाकर अंजाम तक पहुंचाएं इसके लिए संघर्ष और चुनौतियों को स्वीकारना पड़ता है।
दरअसल सपने सिर्फ हमारी वजहों से ही नहीं टूटा करतीं। बल्कि कई बार हमारे आस-पास के लोगों जिनसे हम प्रभावित हुआ करते हैं उनकी वजह से भी बिखरती हैं।
जिन आंखों में सपने नहीं हैं उन आंखों को क्या नाम देना चाहेंगे? शायद वह मरी हुई आंखें हैं। शायद उन आंखों में जीवन के प्रति लालसा नहीं रही।

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