Monday, August 20, 2018

अस्पताल का बिस्तर



कौशलेंद्र प्रपन्न
जो भी अस्पताल में प्रवेश करता है वही जीवन-दर्शन का भाष्यकार हो जाता है। जीवन ही बीमारी, कराह, टीस का पर्याय सा लगने लगता है। जहां भी नज़रें जाती हैं वही एक पीड़ा, वहीं एक दर्द सुनाई, दिखाई देती है। ख़ुद जाएं या किसी प्रिय को अस्पताल लेकर जाएं एक बार के लिए ही सही कई सारे वायदे ख़ुद से कर लेते हैं। अब ऐसा नहीं खाउंगा। रोज़ टहलने जाउंगा। खाने का ख़्याल रखूंगा आदि आदि। और जैसे ही अस्पताल पीछे छुटता है वैसे ही सारे वायदे पीछे वहीं अस्पताल में बेंच पर छूट जाते हैं।
हम अपने जीवन में कभी न कभी अस्पताल जाते ही हैं या गए ही हैं। कभी ख़ुद तो कभी प्रिय जन को लेकर। अस्पताल के बिस्तर पर लेटा व्यक्ति अचानक दाशर्निक की मुद्रा में दिखाई देता है या फिर निःसहाय। वह व्यक्ति हर सांस ऐसे लेता है गोया यह उसकी अंतिम सांस है। वह हर रिश्तेदार, बच्चों को देख-सुन लेना चाहता है। उन सब से मिल लेना चाहता है जो भी उसकी ज़िंदगी में कभी न कभी आए हों। न जाने किसकी बात से, किसकी घटना से उसे उत्साह मिल जाए। किसी बातचीत में उसे जीने की ऊर्जा मिले इसलिए तीमारदार बिना भूले सब से बातें कराया करते हैं। लेकिन हमें किसी की बात और किसी की प्रवृति से यदि बहुत परिचय नहीं है तो वह बीमार व्यक्ति को और भी घोर निराशा में डाल सकता है। जीने ललक देने की बजाए कभी जीवन के प्रति निराशा और नकारात्मक सोच को तो नहीं बढ़ा रहा है। इसपर हमारा नियंत्रण नहीं होता। और बिस्तर पर लेटा व्यक्ति गहरे निराशा में डूबने लगता है। कहां तो तय था कि फलां से बात कर रोगी को सुखद एहसास होगा। अच्छा लगेगा लेकिन हुआ उलट। रोगी की मनोदशा और भी टूटन से भर गई। रोने लगा। देखने वाले को लगता है कि शारीरिक कष्ट की वजह से रो रहा है। लेकिन होता अलग है। बिस्तर पर लेटे हुए व्यक्ति ने अभी अभी जिससे बात की है उसने ऐसी बात बोल दी जिससे मरीज़ के अंदर निराशा और असहाय होने के भाव प्रबल हो गए। देखने वाले को समझने में समय लग जाता है। लेकिन जो डैमेज होना था वह उस व्यक्ति ने कर दिया।
अस्पताल के दृश्य भी अजीब होते हैं। वहां के कर्मचारियों के व्यवहार भी कई बार हैरान करते हैं। हमें लगता है, सुन नहीं रहा है। हमें यह भी महसूस होता है कि कितना असंवेदनशील है आदि। जबकि ऐसा होता नहीं है। वह संवेदनशील भी है और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग भी। समय पर दवा देना। रोगी का देख भाल सब कुछ करता है। बस हमें लगता है कि एक पांव पर क्यों नहीं खड़ा है। क्यों नहीं एक आवाज़ में सुन लेता। आप देखिए अस्पताल के कर्मचारियों के लिए वह रोज़दिन की घटना है। रोज़ ही जहां नए नए और पुराने रोगी आया करते हैं। हर किसी का चेहरा उतरा हुआ। ग़मज़दा और दुख में डूबा हुआ। वह सुबह से रात सोने से पहले तक ऐसे हज़ारों चेहरे देखा करता है। भला अस्पताल में कोई खुश होकर जाता है? हां जब घर में नए मेहमान का आगमन होता है तब खुशी लहर दौड़ जाती है उस वार्ड में। बलून, रंग, किलकारी आदि। इस तरह से देखें तो अस्पताल के लिए कई रंग-रूप हैं। एक हिस्सा ऐसा है जहां मरीज बीमार जाता है और ऑपरेशन के बाद बिस्तर पर लौटता है। जब होश आता है तो पाता है कि फलां अंग में दर्द है। वहीं एक कोना ऐसा होता है जहां तीमारदार, देखने वाले बेंच पर बैठे बैठे अपने सीएल, छुट्टियों के हिसाब में लगे होते हैं। और कितना दिन आना होगा। ऑफिस कब जा पाएंगे। इस कोने की अपनी निराली कहानी होती है। इस कहानी में बीमार तो मुख्य भूमिका में होता है। बाकी अवांतर कहानियां चल रही होती हैं। घर-परिवार। परिवार के सदस्यों की बातें। कौन आया, कौन नहीं आया। कौन रात में रूकेगा किसकी आज रात रूकने की बारी है। इस उधेड़ बुन में कई के चेहरे उतरे होते हैं तो कुछ के चेहरे यथावत् बने रहते हैं।
जो भी हो बुद्ध के जीवन में तीन ही तो घटनाएं आई थीं जिसने सिद्धार्थ को बुद्ध बनाया। बीमारी, वृद्धावस्था और मृत्यु। हम जब भी इनमें से किसी भी अवस्था का चस्मदीद बनते हैं हमारे अंदर भी कहीं न कहीं एक बुद्धत्व जगने लगता है। हम वायदे करने लगते हैं और जब बाहर आते हैं अपनी तमाम घोषणाएं, वहीं पीछे छोड़ आते हैं। और ऐसे ही हम बुद्ध बनने से वंचित रह जाते हैं।

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