Friday, August 19, 2016

ई ना पढ़ि


कौशलेंद्र प्रपन्न
सामान्य अवधारणा कह लीजिए या बोलचाल में अक्सर यह वाक्या सुनने में मिल जाता है कि ई ना पढ़ि यानी यह नहीं पढ़ेगा। इस वाक्य मंे ही छुपा एक पूर्वग्रह साफ दिखाई देता है। हम पूर्व मंे ही मान कर चल रहे हैं कि फलां बच्चा नहीं पढ़ेगा। बिना इसकी कोई गुंजाइश तलाशे कि यदि प्रयत्य किया जाए तो यह बच्चा भी पढ़ सकता है। अमूमन इस वाक्य में न केवल लिंग बल्कि जाति, वर्ग, धर्म आदि के प्रति हमारे दृष्टिकोण को भी सामने लाता है। शिक्षक,अभिभावक, प्रशासक भी इसी पूर्वग्रह को आधार बनाकर हजारों नहीं बल्कि लाखों प्रतिभावान बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से छिनगा देते हैं। पहली नजर मंे दिखाई देने वाला हकीकत दरअसल हमारी नागर समाज की सोच को भी प्रकट करता है। यदि डाॅ तुलसी के उपन्यास मुर्दहिया को पढ़ें या फिर ओम प्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथात्मक उपन्यास जूठन तो एक खास वर्ग, दलित बच्चे को कैसे स्कूल में पहले ही दिन हाथ कलम छुआने की बजाए झाडू पकड़ा दिया जाता है। उस पर तर्रा यह कहा जाता है कि यह तो तेरा पुश्तैनी काम है। इसके साथ ही जातिसूचक गाली नत्थी करते हुए लगातार एक उन्हें शिक्षा की पगडंडी से खदेड़ा जाता रहा है।
हमारा नागर समाज द्वारा ही तैयार पाठ्यपुस्तकें भी कई बार प्रत्यक्ष और कई अप्रत्यक्षतौर पर ई ना पढ़ि की अवधारणा को ही आगे बढ़ाते हैं। इस रोशनी मंे हम सरकार की नीतियों को दिखने-समझने की कोशिश करें तो यह फांक साफ दिखाई देता है। कमतर बच्चों, कमजोर बच्चों, प्रतिभाशाली बच्चों आदि की रेणी में बांट कर हमने शिक्षा देने की वकालत भी शुरू कर दी है। साथ ही बाल मजदूरी कानून को शिक्षा के अधिकार कानून के बरक्स खड़ा कर हमने बच्चों से महज शिक्षा के रूझान को छिछला किया है। एक ओर आरटीई 2009 देश के सभी बच्चों को पढ़ने का हक देता है वहीं बाल मजदूरी कानून उसे कुचलने के लिए आमादा है।
सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे अस्सी लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। वहीं जीएमआर और यूनिसेफ की रिपोर्ट और ही हकीकत बयंा करती है। भारत में अभी पांच करोड़ से भी ज्यादा बच्चों स्कूलों से बाहर हैं। ताज्जुब तो तब होता है जब स्कूल जाने वाले बच्चे महज रजिस्ट में दर्ज होते हैं कैसी शिक्षा उन्हें मिल रही है इस पर हमारा कोई खास ध्यान नहीं होता। यही कारण है कि हमारे बच्चे पढ़ने को तो छह कक्षा मंे होते हैं लेकिन उन्हें कक्षा दूसरी, चैथी की हिन्दी , गणित, विज्ञान की समझ नहीं होती। हिन्दी की जहां तक बात है तो बच्चे सामान्य लिखे हुए वाक्यों को पढ़ नहीं पाते। जो बच्चे पढ़ लेते हैं उसका मायने नहीं समझ पाते। यह स्थिति खासा चिंताजनक है। इसमें कहीं न कहीं हिन्दी शिक्षण की विधियां भी कठघरे में खड़ी होती हैं। साथ ही शिक्षक भी संदेह के घेरे में आता है कि वह किस प्रकार हिन्दी पढ़ा रहा है।
यदि सरकारी स्कूलों मंे पढ़ाई जा रही हिन्दी पर नजर डालें तो पाएंगे कि शिक्षक सामान्यतः पाठों का वाचन भर कर आगे बढ़ जाते हैं। या फिर पाठ के अंत मंे दिए गए सवालों के उत्तर लिखवा कर हिन्दी शिक्षण कर देते हैं। कायदे से हिन्दी की कविता, कहानी आदि कैसे रोचक तरीके से पढ़ाई जाए इसओर उनका ध्यान कम जाता है। हिन्दी की जमीन यहीं से कमजोर होनी शुरू हो जाती है। जो आगे चलकर काॅलेज और विश्वविद्यालय मंे एकबारगी छिछली पड़ जाती है। बच्चों को अंकों के पहाड़ तो मिल जाते हैं लेकिन अभिव्यक्ति के स्तर पर पिछड़ने लगते हैं। एक गद्यांश लिखने में कई त्रुटियां करते हैं। न तो वे लिख,बोल और पढ़ने के कौशलों में दक्ष हो पाते हैं और न ही वे अपने विचारों को प्रकट करने में सक्षम हो पाते हैं। जो किसी भी भाषा कौशलों के चार स्तम्भ माने गए हैं। यदि शिक्षक पाठ्यपुस्तकों के साथ अपनी सृजनात्मक चिंतन और कल्पनाशीलता का इस्तमाल करें तो संभव है हिन्दी शिक्षण ज्यादा रूचिपूर्ण और लाभकरी हो सकेगी।
अमूमन शिक्षकों से सुनने में आता है कि उनकी कक्षा के बच्चे सामान्य वाक्य लिख और पढ़ नहीं पाते। उन्हें कैसे पढ़ना लिखना सीखाया जाए। भाषाविदों और प्रशिक्षकों का मानना है कि हिन्दी व किसी भी भाषा शिक्षण मंे व्याख्यान के साथ गतिविधियों के मार्फत शिक्षण किया जाए तो वह ज्यादा कारगर होता है। बच्चे जितना दृश्य-श्रव्य सामग्री देखते और सुनते हैं वह उनकी स्मृति में स्थायी हो जाती है। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकारी स्कूलों मंे ब्लैकबोर्ड को छोड़कर अन्य सामग्री मुश्किल से मिलती हैं। अनुभव तो यह भी बताते हैं कि जो ब्लैकबोर्ड होते हैं वे भी प्रयोग की स्थिति में कम ही होते हैं। ब्लैकबोर्ड में इतने गड़्ढे होते हैं कि शिक्षकों को लिखने के लिए जगह तलाश करनी पड़ती है।
इन तमाम स्थितियों मंे यदि बच्चा स्कूल आ रहा है तो उसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले इसके लिए विभिन्न आयोगों और समितियों ने संस्तुतियां दी हैं लेकिन वे फाइलों मंे ही मिला करती हैं। एक ओर अभिभावक वहीं दूसरी ओर शिक्षक वर्ग भी है जो मानकर चलता है कि ये बच्चे नहीं पढ़ सकते। इन्हें तो अंत में रेड़ी ही लगाने हैं। ये पढ़कर क्या करेगा। गोया ई ना पढ़ि पढ़िहैं संसार। सारा संसार पढ़ेगा बस कुछ खास बच्चे ही शिक्षा के स्वाद से अछूते रह जाएंगे। एक ओर समाज में पढ़ने लिखने पर सरकारी स्तर पर काफी जोर दिया जा रहा है। वहीं समाज में बच्चों का एक बड़ा वर्ग वह भी है जो स्कूल और शिक्षा की देहारी पर अपनी पारी का इंतजार कर रहा है। यदि डिजिटल इंडिया में बच्चे अनपढ़ रहते हैं तो यह एक करारा तमाचा उन बच्चों के गालों पर नहीं बल्कि नागर समाज के गाल पर होगा।  


No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...