Thursday, May 19, 2016

बिन पेंदी के चलेंगे



कौशलेंद्र प्रपन्न
उनका कहना था हमारे पास एक लोटा हुआ करता था। वे भी बिन पेंदी के। जहां भी रखो वही ढुलमुलाकर गिर जाया करता था। उसके कई सारे फायदे थे। उन्होंने एक एक कर बिन पेंदी के लोटे के गुण गिनाए। ठहरिए इतनी जल्दी भी क्या है। बताते हैं। और फिर उन्होंने गला खखारकर साफ करते हुए कहा- पहला तो यही कि पेंदी होने पर आप स्थिर हो जाते हैं। पेंदी की कीमत भी चुकानी पड़ती है। इसलिए बिना पेंदी के लोटे को कही भी रख छोड़ो वह अपनी तरह से जगह बना लेता है। दूसरा, बिन पेंदी के लोटे के माफिक रहने पर कोई आपपर आरेप नहीं लगा सकता कि एक ही जगह पड़े रहते हो। इसमें पूरी सुविधा होती है कि आप जब चाहें, जहां चाहे स्थान परिवर्तन कर सकते हैं। तीसरा लाभ, पेंदी होने पर आप पर शक भी किया जाता है लेकिन बिन पेंदी के होने में जाता कुछ भी नहीं है मिलने को पूरी दुनिया तैयार रहती है। उन्होंने आगे और भी मौजूं लाभ बताए।
मेरे एक बाबा हुआ करते थे जिन्हें पूरे गांव जेवार में बिन पेंदी के लोटा कहा जाता था। स्टेशन पर उतरे नहीं कि उनका नाम ले लें बच्चा बच्चा उन्हें जानते थे अच्छा तो आपको बिन पेंदी वाले बाबा के घर जाना है और बच्चे घर तक छोड़ आते थे। मुहल्ले में भी उनकी चर्चा जारों पर रहती। उन्हें हर चुनाव,सभा,नेता, मंत्री सब बिन पेंदी के नाम से जानते थे। यही तो उनकी खासियतें थीं जिन्हें उन्होंने पूरी जिंदगी शिद्दत से जीया। जितना भी जीया पूरे ठसके साथ जीया। इसके लिए उन्हें कोई मलाल किस्म के भाव ने परेशान नहीं किया। किसी ने उनसे उनके उम्र साठवें पायदान पर पूछा,‘ आपको सभी बिन पेंदी के कहा करते हैं आपको कैसा लगता है?’ इस सवाल पर वो दार्शनिक मूड में जवाब दिया आज मेरे पास जो कुछ भी है वो इसी बिन पेंदी का दिया हुआ है। मैंने अपनी नौकरी और जीवन में यही पाया है कि पेंदी के रह कर ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। इसलिए मैंने तय किया कि अब मैं पूरी जिंदगी बिन पेंदी के रहूंगा। उसके बाद एक वो दिन थे और एक आज का दिन है मैंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।’
बाबा जी किसी सरकारी नौकरी में होते थे। कहते हैं कि उनका बॉस उनसे बेहद खुश रहा करता। उसकी हर बात में नाड़ डोलाना उसे बेहद पसंद था। किसी की बुराई हो या प्रशंसा बाबाजी मूड देख कर वाक्यों के निर्माण में बेहद कुशल थे। कहते तो यह भी हैं कि उन्होंने बोलने के कौशल में महारत हासिल कर रखी थी। दादाजी बताती हैं कि बाबाजी बोलने की ही खाते थे। शादी भी उनके बोलने की कला पर ही संभव हो सकी। उन्हें पता चल चुका था कि पेंदी के होकर चलना मुश्किल है। इसलिए एक दिन शाम को जबवो घर लौटे तो बड़े उदास थे। दादाजी ने पूछा क्या हुआ? आज मन भर का चेहरा बना कर क्यों बैठे हो? तब बाबाजी का जवाब दादी जी को चौका दिया। आज तक मैं पेंदी को होकर ठोकर ही खाता रहा। आज से मैं आकाश, जमीन,गंगा, हिमालय,अपने पुरखों और दसों दिशाओं को साक्षी मान कर एलान करता हूं कि आज के बाद मैं ताउम्र बिन पेंदी के चलूंगा। इस राह में जो भी जैसी भी दिक्कतें आएंगे मैं उसका सामना डट कर करूंगा। किसी भी पेंदी वाले से वास्ता नहीं रखूंगा।
पेंदी और बिन पेंदी में उन्होंने एक बड़ी स्पष्ट विभाजन रेखा खींच रखी थी। उस रेखा को आज तक किसी ने भी पार नहीं किया। यही उनकी उपलब्धि थी कि पूरी जिंदगी उन्होंने अपने उस वचन की लाज रखी। उस वचन के लिए उन्हें कई सारे तमगे, शॉल, प्रशस्ति पत्र आदि मिले। मरने से पहले उन्होंने अपने बच्चों,मुहल्ले के लोगों को बुलावा भेजा कहा ‘‘ मुझे लगता है मेरे दिन पूरे हो गए। मैंने जो कुछ जिंदगी में किया,पाया उसे आप सभी को सौंप कर चैन की नींद सो लूं। बेटे तो नालायक निकले। मेरी बात नहीं मानते।’’
प्रोफेसर, टीचर, पलंबर वाला, मास्टर सलून वाले सब जुट गए। अब उन्होंने अपने मन की बात की कि ‘‘ जीवन में ख्ुश रहना है तो बिन पेंदी के रहो। अपनी की कोई पहचान, अस्मिता के चक्कर में जीवन बरबाद मत करो। जीवन दर्शन तो यही कहता है कि जितना जीयो ख्ुल कर जीयो। क्या पेंदी और क्या बिन पेंदी। बेलने वालों को बहाना चाहिए। वो बोलेंगे ही कि यही भी कोई जीना है मर्दे। जीना है तो बाबाजी की तरह जीयो। मुंह पर बेशक न बोलें लेकिन आपलोग मेरे पीछे यही बोलोगे मुझे मालूम है। लेकिन मैं अपना फर्ज समझता हूं कि जिंदगी के फल्सफे आप सभी को सौंप कर जा सकूं।’’
सभी ध्यान सुन और गुन रहे थे। लेकिन कथा सुनाने वाले बाबाजी कहीं और अपनी बिन पेंदी के लोटा को लेकर जा चुके थे। सब की आंखें नम थीं। लेकिन दादीजी ने सब को थावस बंधाया और कहा यदि कोई रोएगा तो मेरे बिन पेंदी की आत्मा को कष्ट होगा। इसलिए यदि किसी को रोना है तो अपने भाग्य और पेंदी वाले लोटे पर रोए। मैंने उन्हें बहुत खुश देखा है पूरी जिंदगी।
आज ग्यारहवां दिन हैं। चारों ओर बिन पेंदी के लोटे ही लोटे लुढक रहे हैं। आंगन, बैठकखाना, दुआर सभी जगह लोटे ही लोटे थे। इस गांव के सभी निवासियों ने बाबाजी के वचन और सत्य के साथ प्रयोग को स्वीकार कर लिया था। कहते हैं उस गांव के क्या बुढे क्या जवान और क्या बच्चे सब की जिंदगी बदल चुकी थी। किसी के पास अपनी कोई पहचान नहीं थी। सभी अपनी अपनी जिंदगी में बाबाजी को जी रहे थे। कहते हैं उस गांव के निवासी जहां भी गए ख्ुश और प्रसन्न थे। क्योंकि उन्होंने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता, मान्यताओं, मूल्यों और पूर्वग्रह को बाय बाय टाटा टाटा कर दिया था।
बाबाजी की छोटी सी जिंदगी का एक वाकया यह भी है जो शायद आपने देखा न हो। मेरा तो फर्ज है कि उसे भी आपके सामने रखूं। उन्होंने कभी भी किसी पार्टी, विचार, धारा के लेकर कट्टर नहीं हुए। उन्होंने उसे ही अपनी विचारधारा बना ली जिसकी मांग थी। अपनी पहचान को लेकर कभी किसी से लड़े भी नहीं। जो पहचान कुर्सी चाहती थी वैसा ही ताना बाना,पहनावा भी अपनाया। उनकी सफलता इसी बात में छूपी थी कि कुर्सी ने जैसा चाहा, जैसी मांग की उन्होंने बड़ी ही शिद्दत से पूरा किया। बल्कि कहना चाहिए उन्होंने अपने बिन पेंदी के सिद्धांत को पहन ओढ़ रखा था। उन्हें चाहने वाले, मानने वालों की यूं तो बड़ी लंबी लाइन नहीं थी लेकिन जो थे उन्हें अपना ही मानते थे। यही वजह रहा कि जब वे गए पीछे खड़े होने वालों की एक कतार थी।  


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