Wednesday, May 18, 2016

कलमकारों का दम तोड़ना


कौशलेंद्र प्रपन्न
लेखकीय समीक्षा और आलोचना को सहने की क्षमता जिस भी व्यक्ति,समाज,सत्ता में नहीं होती उसी समाज में लेखकीय हत्या होती है। लेखकीय हत्या दरअसल हमारी अहिष्णुता की ओर ही इशारा करती है। कहां तो निंदक नियरे रखने की बात एक कवि कहता है वहीं एक यह समाज है जिसमें हम अपनी आलोचना,समीक्षा नहीं सह पाते और लेखक की हत्या तक करने से गुरेज नहीं करते। लेखक से यहां मतलब उन तमाम लोगों से है जिनके हाथ में कलम है। जिनका रोजगार ही कलम है। वे चाहे पत्रकार,लेखक,कवि,कथाकार कोई भी हों हैं तो कलमकार ही।
पिछले दिनों बिहार में पत्रकार को गोली मार दी गई। वहीं उत्तर प्रदेश भी इसमें कोई पीछे नहीं है। जरा पीछे झांक कर देखें तो ज्यादा दिन नहीं हुए जब वहां पत्रकार को सरेआम आग लगा कर मार दिया गया। देश के तमाम राज्यों में विभिन्न तरह से पत्रकारों और लेखकों को या तो मौत के घाट उतार दिया जाता है या फिर उनकी कलम की ताकत को ऐसे कमजोर किया जाता है कि दुबारा वे उठ नहीं पाते। दूसरे शब्दों में कहें तो कलमकारों को शाम,दाम,दंड़ और भेद के जरिए तोड़ने का प्रयास किया जाता रहा है। देश के विभिन्न कोनों से आने वाली ख़बरों पर नजर डालें तो पाएंगे कि जिन कलमों ने विरोध के स्वर मुखर किए उनकी कलम की ताकत को कमजोर करने प्रयास किया गया। या तो कलमें चारण करने लगती हैं या फिर कलम की धार को कुंद कर दिया जाता है।
हमारे इसी समाज में ऐसे भी कलमकार हुए हैं जिन्होंने कलम को सत्ता तक पहुंचने का एक माध्यम भी बनाया। उनके लिए कलम की प्रतिबद्धता के मायने कुछ और थे। कई पत्रकारों की लेखनी एक ख़ास मकसद को लेकर चलीं। उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता को प्रमुखता से निभाया जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें सत्ता, लोक सभा, राज्य सभा में बैठाया गया। इस बात से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि पत्रकार की लेखनी पत्रकारिता के लिए होती है न कि किसी खास खेमे के विचारधारा, दल को लाभ पहुंचाने के लिए। जिन लोगों ने भी पत्रकार की राह छोड़ी उन्हें पत्रकारिता में वो स्थान नहीं मिला जो प्रतिबद्ध पत्रकार को मिलना चाहिए या मिला करता है। यहां विमर्श का मुद्दा यह भी हो सकता है कि क्या पत्रकार समाज का हिस्सा नहीं है? क्या पत्रकार के घर-परिवार नहीं होते? यदि होते हैं तो उसे भी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां को निभाना होता है। एक आम पत्रकार की सैलरी जितनी होती है उसमें दो जून की रोटी ही खाई जा सकती है। बच्चों को बड़े निजी स्कूलों में पढ़ाने का खर्च वह नहीं उठा सकता। आज भी हकीकत है कि एक अखबार में काम करने वाला पत्रकार उतनी ही सैलरी पाता है जिसमें वह अपनी जिंदगी बस बसर कर पाए। ऐसे में उसके कदम भटकते हैं तो इसमें ज्यादा परेशान न हुआ जाए। लेकिन एक प्रोफेशन की मांग के अनुसार संभव है उचित न माना जाए। मंजिठीया आयोग की सिफारिशें आज भी अमलीजामा पहनने के लिए मुंह जोह रही हैं। विभिन्न मीडिया घरानों ने जिस चतुराई के साथ आयोग की सिफारिशों के धार को कुंद किया उन घरानों में पत्रकार जिन हालात में काम कर रहे हैं यह एक नागर समाज के लिए चिंता की बात होनी चाहिए।
खासकर पत्रकारिता एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें पत्रकार शोषण के खिलाफ आवाज तो उठाता है, स्टोरी भी करता है लेकिन स्वयं की हालत शोषित की होती है। वह अपनी आवाज कहां और किसके सामने उठाए यह उसके लिए बड़ी चुनौती होती है। यदि पत्रकार ने मैनेजमेंट की बात नहीं मानी या फिर सैलरी, अधिकार आदि की बात की तो तुरंत बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। उसी घराने में अन्य कामों के लिए अराफात पैसे खर्च किए जाते हैं लेकिन मंदी की आड़ में हजारों हजार पत्रकारों को रातों रात बाहर कर दिया जाता है। इसकी खबर भी कहीं कोई नहीं लेता। खबर बनाने वाले की खुद की खबर नहीं लगती।
लेखक,पत्रकार,कवि,चित्रकार,व्यंग्यकार, कथाकार आदि अपनी लेखनी से समाज को एक दिन में न सही किन्तु समाज को कहीं गहरे प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। उनकी लेखनी में ताकत और क्षमता होती है कि क्रांति ला सकें। यूं तो समाज में यह एक दिन, एक साल में बेशक संभव नहीं है लेकिन इनकी लेखनी के प्रतिरोध के स्वर बड़े मुखर होते हैं। कवियों की भाषा और कंटेंट इसी समाज में कई बार रातों रात एक आंदोलन को भी जन्म देन की क्षमता रखते हैं। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसकी लेखनी कितनी शिद्दत से अपनी कलम की ताकत का इस्तमाल करता है। कलमुर्गी, गोंड्वी जैसे कवि,लेखक ने अपनी कलम की ताकत को पहचाना और उसका प्रयोग भी किया। 16 मई 2014 के बाद की कविताओं का एक सिलसिला चला जिसके काफिले में हजारों हजार श्रोता और लेखक जुड़े। आज भी प्रतिरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं। याद हो कि बाबा नागार्जुन ने भी ‘इंदू जी इंदू जी क्या हुआ आप’ को जैसी कविताएं सत्ता के खिलाफ न केवल लिखीं बल्कि उसका वाचन और मंचन भी किया। वहीं सफ्दरी हाशमी जैसे कलाकार ने भी प्रतिरोध के स्वर को दबाने की बजाए मुखर किया।
जब समाज में आलोचना,प्रतिरोध,समीक्षा आदि को सहने की क्षमता पतली हो जाती है तब चारण काल की सुगबुगाहट मानी जा सकती है। माना जाता है कि यदि हमारे पास सही और पात्र समालोचक हों तो हमारे जीवन और कार्य में काफी निखार आता है। इसलिए लोक सभा हो या फिर अन्य कोई भी सभा वहां विपक्ष मजबूत होने की मांग की गई है कि ताकि सत्ता प़क्ष निरंकुश न हो जाए। विपक्ष व समालोचन का काम ही होता है सामने वाले के काम पर कड़ी नजर रखना। जब समीक्षक व आलोचक बिना किसी निजी पूर्वग्रह के आलोचन कर्म करता है तब उसके स्वर में याचना नहीं होती बल्कि वह पूरी ताकत के साथ अपनी बात रखता है। अफसोस की बात है कि आज आलोचक/समीक्षक,समालोचक की धारा पतली होकर पनीली हो चुकी है। कहां कहां किसे पुरस्कार मिलना व मिलाना ह्रै यह समीकरण जब वाचाल हो जाता है तब तय है कि लेखनी मिमियाने लगेगी।
लेखक का ही एक वर्ग ऐसा है जो मुखर विरोध के स्वर को दबाकर अपनी चारणीय स्वयं को सत्ता तक पहुंचाना चाहता है। अपने इस कर्म में काफी हद तक सफल भी हो जाता है। लेकिन लेखकीय बिरादगी में उसकी साख गिरनी शुरू हो जाती है। वह लेखक, पत्रकार फिर लेखनी के बल पर नहीं बल्कि अन्य जुगाड़ों के जिंदा रहा करता है। उसकी लेखनी की मौत हो चुकी होती है। वह जो भी लिखता है उसे वह तवज्जो व प्राथमिकता नहीं दी जाती क्योंकि वह फिर खास खेमे का होकर रह जाता है। हमारे इसी समाज में इस किस्म के कई लेखक,पत्रकार हैं जिन्होंने अपनी रीढ़ को इतना नरम किया कि अब उनमें ताकत ही जाती रही।


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