Monday, September 28, 2015

नौकरी से हाथ धोनी


सरकारी नौकरी में नियुक्ति के दिन ही अवकाश की तिथि भी सर्विस बुक में दर्ज कर दी जाती है। यह अलग बात है कि उस सर्विस बुक को एक कर्मचारी पूरी जिंदगी ढोता रहता है और पता भी नहीं चलता कब अवकाश प्राप्ति के दिन आ गए। अवकाश प्राप्ति के कुछ वर्ष जब बचते हैं यानी दस या छः साल तब कर्मचारी को एहसास होने लगता है कि अब अवकाश के दिन करीब हैं। तब उसे अपनी शेष जिम्मेदारियों के अधूरेपन का भी एहसास होने लगता है। अभी तो बच्चा पढ़ ही रहा है। बच्ची की भी शादी अभी रहती है। अपना मकान भी नहीं बन पाया आदि। देखते ही देखते कब सर्विस के साल पंख लगा कर उड़ जाते हैं इसका इल्म ही नहीं होता। छरहरा बदन, काले बाल, सपनों से भरी आंखों के साथ कोई अपनी जिंदगी में नौकरी की शुरुआत करता है। पंद्रह बीस साल गुजर जाने के बाद वह ठहरने सा लगता है। जम सा जाता है। जब अवकाश के दिन करीब आने लगते हैं तब वह लेखाजोखा करता है कितने काम शेष रहते हैं। सरकारी नौकरी में तो एक बार नियुक्त होने के बाद गोया कर्मचारी लंबे तान कर सो सा जाता है। उम्र का एक बड़ा हिस्सा निश्चिंतता में ही कट जाती है। क्योंकि कोई भी उन्हें नौकरी से नहीं निकाल सकता, जबतक कि कोई ऐसा अपराध न करें जिसके लिए नौकरी से हाथ धोनी पड़े। लेकिन सरकारी नौकरी के समानांतर ही निजी कंपनियों में खटने वाले कर्मचारियों के विधि विधान ज़रा अलग होते हैं। कब कौन नियुक्त होता है और कब आनन फानन में निकाल दिया जाता है यह भी दिलचस्प होता है। निजी कंपनियों में जिस तरह से नौकरी पैकेज पर सहमति बनती है, नौकरी की शर्तंे तय होती हैं। उसका टूटन भी उसी शिद्दत से होता है। रातों रात कर्मचारियों को बाहर का रास्ता भी दिखाया जाता है।
जब भी किसी की नौकरी जाती है गोया उसके साथ कई सपने भी खत्म से हो जाते हैं। किसी की सगाई टूट जाती है। किसी भी शादी टल जाती है। किसी की सामाजिक हैसियत खतरे पर पड़ जाती है। घर-समाज में उसे अलग किस्म की नजरों का सामना करना पड़ता है। निजी कंपनियों में तो कब किस पर कैसे गाज गिर जाए कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता। यहां तक कि कई बड़ी बड़ी कंपनियों में फायर करने वाली एजेंसियों की मदद ली जाती है। यह काम या तो एचआर के हाथों होता है या फिर फायर यानी किसी भी कर्मचारी को कल से जाॅब से हटाने का काम अलग इसी काम में महारत हासिल एजेंसियों को सौंपा जाता है। क्योंकि किसी कर्मचार को निकालना कितना कष्टदायी और कठिन होता है यह वही व्यक्ति जान और महसूस कर सकता है जो इस काम को करता है। एक व्यक्ति जाॅब से नहीं निकलता बल्कि उसके पास कई निर्भर सदस्य भी असहाय हो जाते हैं। अचानक तमाम खर्चे आंखों के सामने घिरनी की तरह नाचने लगते हैं। कल से आॅफिस न आना। नई जाॅब की तलाश कितना मुश्किल भरा डगर होता है इसका अनुमान एक जाॅबधारी शायद न लगा पाए।
विभिन्न कंपनियों मंे बुरे दौर में मजबूरन लोगों को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ता है। हाल ही में देश की एक बड़ी दवाई निर्माता कंपनी जो कि देशी कंपनी में शामिल हो गई, उस कंपनी के पहले से ही हजारों की तदाद में कर्मचार थे उसे मजबूरन लोगों को निकालने की प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी। माना जाता है कि कुछ कंपनियों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ। लेकिन कंपनी को दुरूस्त करने के लिए अतिरिक्त कर्मचारियों की छंटनी करनी पड़ी। आलम यह था कि जिन्हें निकाला जाता वे इस मनोदशा में पहंुच जाते कि उन्हें कंपनी गाड़ी से सुरक्षित घर छोड़ कर आती। कुछ ऐसी भी घटनाएं हुई कि जिसे निकाला गया उसे दोपहर में तब पता चला जब एचआर वाले लाॅपटाॅप लेकर चले गए और केबिन में बुलाया। आईडी एसेस बंद कर दिया गया। अमुमन छंटनी की शायद ऐसी ही प्रक्रियाएं हुआ करती हैं। कर्मचारी घर से दफ्तर आता है और उसे गेट पर ही रोक लिया जाता है और लाॅपटाॅप आदि वहीं लेकर नमस्ते कर दिया जाता है।
कुछ कंपनियां ऐसी भी हैं जो बड़ी ही प्रोफेशनल तरीके से छंटनी को अंजाम देती हैं। उन कंपनियों में ऐसे भी विभाग खोले जाते हैं जो छंटनी और छंटनी से बाहर होने वालों कर्मचरियों की काॅसलिंग किया करते हैं। क्योंकि ऐसी कई घटनाएं भी रोशनी में आई हैं कि व्यक्ति मानसिक संतुलन खोने लगता है। आत्महत्या तक की सोचने लगता है ऐसे में उसकी मनोदशा को समझ कर बर्ताव करना बेहद जरूरी हो जाता है। गौरतलब है कि 2008 की मंदी में वैश्विक स्तर पर लाखों लोागों की नौकरियां न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर गई थीं। घर तो घर लोगों की जिंदगी तबाह हो गईं। रातों रात लोग सड़क पर आ गए। इस दौर में लोगों में मानसिक असंतुलन तो पैदा किया ही साथ ही शारीरिक बीमारी भी पैदा हो गई। सिर दर्द, दांतों में दर्द, मनोविदलन, डिप्रेशन, हाइपर टेंशन आदि से ग्रसित हो गए।
इस दौर में जिसकी नौकरी गई उस वक्त बाजार बहुत खस्ता हाल था। छह छह और साल भर तक बेरोजगार घर बैठना पड़ा। आस पड़ोस के लोगों की नजरों से बचना भी एक बड़ी चुनौती थी। एक घर में दूसरा बाहर दोनों ही स्तरों पर लोगों के सवालिया नजरों का सामना करना पड़ रहा था।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...