Friday, September 25, 2015

शिक्षक की भूमिका और चुनौतियां



5 अक्टूबर अंतरराष्टीय शिक्षक दिवस पर विशेष आलेख
कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षकों के साथ काम करना कई तरह के अनुभवों से भर जाना होता है। यह तल्ख़ जमीनी हकीकत है कि शिक्षण क्षेत्र में दो किस्म के शिक्षक आते हैं। पहले वे जिन्हें कहीं और जाने का रास्ता नहीं मिला वे विवशतावश इस व्यवसाय को चुनते हैं। दूसरे वे लोग हैं जो शिक्षण को प्रसन्नता और प्राथमिकता के स्तर पर चुनते हैं। दूसरे स्तर वालों शिक्षकों की ख़ासा कमी है। पहले वाले वर्ग में आने वाले शिक्षकों की संख्या लाखों में है। पहले वर्ग में आने वाले वे तमाम स्नातक और परास्नातक हैं जो कहीं और किसी दूसरे प्रोफेशन में नहीं जा सके वे अंततः शिक्षण कर्म में आ जाते हैं। संभवतः पहले किस्म के शिक्षकों के कंधे पर शिक्षा की गुणवत्ता निर्भर भी करती है। क्योंकि यह वर्ग काफी समय तक तो अपनी पूर्व इच्छाओं और आकांक्षाओं में जी रहे होेते हैं। उनके सपने और उनकी लालसा को छंटने में वक्त लगता है। पहले वर्ग में ऐसे शिक्षकों की संख्या भी कम नहीं है जो शिक्षण में तो आ गए किन्तु अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे रहते हैं। हालांकि महत्वाकांक्षी होना गलत है, लेकिन यदि शिक्षक की आकांक्षा से बच्चों और स्कूली शैक्षिक गुणवत्ता प्रभावित होती हो तो यह उचित नहीं है। एक ओर ऐसे भी शिक्षक मिलते हैं जिनकी दिलचस्पी शिक्षा और शिक्षण में बहुत ज्यादा नहीं होती। वहीं ऐसे भी शिक्षकों की संख्या कम नहीं है जो क्लास से बाहर तक नहीं जाना चाहते। उन्हें यदि गैर शैक्षिक कामों में लगाया या भेजा जाता है तो वे बेहद दुखी हो जाते हैं। उनकी पीड़ा इस बात की होती है कि उनके बच्चे कैसे होंगे। उन्हें कौन पढ़ा रहा होगा आदि। उनकी बड़ी चिंता बच्चे होते हैं। उनके लिए स्कूल का समय तो महत्वपूर्ण होता ही है वे इसके अतिरिक्त अपने निजी समय में से भी अधिकांश वक्त बच्चों और शिक्षा की बेहतरी के लिए विमर्श करने में दिलचस्पी रखते हैं। उन्हें जब भी कार्यशाला में जाने और अपनी समझ को ताजा करने का अवसर मिलता है वे किसी भी सूरत में जाना चाहते हैं। उनकी चिंता शिक्षा और बच्चे होते हैं। शायद यही वजह है कि आज शिक्षा में यदि ज़रा सी भी गुणवत्ता व स्तर बचा है तो वह इन्हीं के बदौलत है। लेकिन इस किस्म की प्रजातियों की संख्या सीमित है। इन्हें अपने स्कूल की व्यवस्था में कई बार आलोचना भी सहना पड़ता है। इतना ही नहीं घर में भी इनके कामों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। यदि इनकी मनोदशा और वर्तमान परिस्थिति पर नजर डालें तो पाएंगे कि इन्हें बहुत ही कम पहचान मिला करता है। इनकी पहचान इनके शब्दों में बच्चों की ख्ुाशी और प्रसन्न चेहरे होते हैं। यहां तक कि यह वर्ग सरकारी पुरस्कारों व सम्मानों से भी परहेज किया करते हैं। लाख प्रेरित किया जाए किन्तु इनमें फाॅम तक भरने की लालसा नहीं होती। इसके पीछे ऐसे लोगों का मानना होता है कि हम पढ़ाने में रूचि रखते हैं। हमारा काम पढ़ाना है। हमारा सबसे बड़ा पुरस्कार बच्चों की खुशी और बच्चों की उन्नति होती है। हमें पुरस्कारों से क्या काम? अब सोचना नागर समाज को है क्या उन्हें पुरस्कार देना चाहिए? कौन सी वजहें हैं कि उनका विश्वास पुरस्कारों से उठ चुका है।
आज की कड़वी सच्चाई यह भी है कि स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरा है तो उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ शिक्षक ही दोषी नहीं हैं। बल्कि हमें उन कारकों की पहचान भी करनी होगी जिनकी वजह है स्कूल शिक्षा के स्तर में गिरावट दर्ज की जा रही है। पहली बात तो यही कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में गिरावट से हमारा क्या मतलब है इसे स्पष्ट कर लें। यहां गिरावट से अर्थ प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों में भाषा, गणित,विज्ञान आदि विषयों में अपनी उम्र और कक्षा के अनुसार ज्ञान व विषय की पकड़ न होना। साथ ही भाषा के चार कौशलों-सुनना, बोलना,पढ़ना और लिखना के स्तर पर बच्चे पिछड़ते जा रहे हैं। एनसीईआरटी, प्रथम, डाईस आदि की रिपोर्ट हर साल इस ओर नागर समाज का ध्यान खींचती हैं कि कक्षा 5 वीं व कक्षा 6 ठी में पढ़ने वाले बच्चे कक्षा 1 व 3 तीन के स्तर की भाषायी समझ और कौशलों में सक्षम नहीं हैं। यह हाल न केवल भाषा के स्तर पर है बल्कि गणित और विज्ञान में भी तकरीबन यह ही स्थिति है। बच्चों को सामान्य गणित और हिन्दी के वाक्य तक पढ़ने में पिछड़ रहे हैं। यह एक सच्चाई है वहीं इसी कहानी के पीछे एक और सच छुपा हुआ है जिस तरफ शिक्षा जगत के जुड़े लोगों का नहीं जाता। इन पंक्तियों के लेखक को तकरीबन 5000 स्कूली शिक्षकों को प्रशिक्षण देने का अवसर देश के विभिन्न राज्यों में मिला है, इसके आधार पर कहा जा सकता है सरकारी स्कूलों की जिस किस्म की छवि मीडिया व रिपोर्ट में पेश की जाती है वही सच नहीं है बल्कि सच यह भी है कि इन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे मेधावी प्रतियोगिताओं और अन्य विषयों में भी निजी स्कूलों के बच्चों से ज़रा भी कम नहीं हैं। वहीं शिक्षकों में भी निजी स्कूलों के शिक्षकों की तुलना मंे ज्यादा प्रतिबद्ध होते हैं। ये शिक्षक कहीं अधिक शिक्षित और उच्च डिग्रीवाले होते हैं। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि क्या वे अपनी योग्यता और जानकारी का भरपूर इस्तमाल कक्षा में करते हैं? क्या वे शिक्षक अपनी कक्षा में अपने अनुभवों और शैक्षिक यात्रा का आस्वाद बच्चों में संप्रेषित कर पाते हैं? यह एक विमर्श का मसला है कि कई बार शिक्षक पढ़ाना तो चाहता है लेकिन उसे प्रशासनिक कार्यों, अभियानों, कागजी दौड़ों में हांक दिया जाता है। ऐसे में शिक्षक बहुत दुखी होते हैं। उन्हें लगता है उनसे बच्चे दूर किए जा रहे हैं। ऐसी ही एक वाकया राजस्थान और लुधियाना की कार्यशाला है कि शिक्षक बात करते करते रोने लगे कि मैं पिछले तीन माह से कक्षा में पढ़ा नहीं पा रही हूं। मैं स्कूली और विभागीय कामों में लगी हूं। बच्चे मुझे पूछते हैं लेकिन मैं चाह कर भी पढ़ा नहीं पाती हूं। इस तरह की स्वीकारोक्तियों से मेरा सामना अकसर कार्यशालाओं मंे होता रहा है। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को प्रोत्साहन और उनके कामों को पहचानने की आवश्यकता है। जरूरत इस बात की भी है कि जिस तरह के गैर अकादमिक कामों में शिक्षकों को लगाया जाता है उससे इन्हें निजात मिले और कक्षा-कक्ष में शिक्षण पर ध्यान दे पाएं।
ऐसे शिक्षक/शिक्षिकाओं की भी कमी नहीं है जो पूरे मनोयोग से शिक्षण करना चाहते हैं और करते भी हैं। लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब उनके कामों को नजरअंदाज किया जाता है या फिर उन्हें अन्य कामों में झांेक दिया जाता है। धीरे धीरे शिक्षक इन कामों में रमने लगता है और शिक्षण कर्म से दूर होता चला जाता है। शायद एक मेहनती और इच्छुक शिक्षक ऐसे ही मरा करते हैं। प्रशिक्षण कार्यशालाओं के अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि दिल्ली में कई तरह के स्कूल हैं सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त आदि। इन स्कूलों में शिक्षण योग्य और तजुर्बेकार भी होते हैं लेकिन सरकारी स्कूलों में सुविधाओं की कमी की वजह से शिक्षक नहीं पढ़ा पाते। ओल्ड सीमापुरी, जाफ़राबाद, गोकुलपुरी,भजनपुरा,भोलानाथ नगर,भागीरथ विहार आदि स्कूलों में हालात ऐसे हैं कि दरवाजें है तो किवाड़ नहीं। खिड़की है तो पल्ले नहीं। जमीन पर पट्टियों पर बैठे बच्चे नजर जिस उत्साह के साथ स्कूल आते हैं उन्हें पढ़ाया तो जाता है लेकिन स्कूल से जाने के बाद घर पर पढ़ने का माहौल नहीं मिल पाता। इन स्कूलों में बच्चे जिस परिवेश से आते हैं उन्हें नजरअंदाज कर शिक्षा और शिक्षक की भूमिका को तय नहीं किया जा सकता। जब हम शिक्षक और शिक्षा की जिम्मेदारी की बात करते हैं तब शैक्षिक नीतियों और आयोगों की सिफारिशों की ओर भी देखना प्रासंगिक होगा। जहां कोठारी आयोग से लेकर राष्टीय शिक्षा नीति 1986 भी खासे प्रासंगिक है। इसी कड़ी में शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 भी मौजू है। इन आयोगों और समितियों की वकालत को शिक्षा की बेहतरी के लिहाज से देखते हैं जो नीति के तौर पर पर उम्मीद की रोशनी पैदा करती हैं लेकिन जब जमीनी हकीकत पर नजर डालते हैं तब चुनौतियां सामने आती हैं जिससे शिक्षक और शिक्षा जगत रू ब रू होता है।
एक शिक्षक कितना संवेदनशील होता है इसकी झलक इस बात से भी मिलती है कि शिक्षक अपनी पगार से जब कक्षा में टीएलएम का खर्च उठाता है, जब गरीब बच्चे की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति अपने वेतन से करता है, लेकिन उसके बावजूद भी शिक्षक की निष्ठा पर सवाल उठाए जाते हैं। जब शिक्षण के स्तर का तो मूल्यांकन होता है लेकिन एक शिक्षक किन कारणों व परिस्थितियों में पढ़ाता है व नहीं पढ़ा पाता इसको तवज्जो नहीं दिया जाता तब शिक्षक का मनोबल कमजोर होता है। शिक्षक का आत्मबल तब भी नीचे जाता है जब उसे सिर्फ और सिर्फ लानत मलानत ही दिए जाते हैं। हमारे सामने कई ऐसे शिक्षक हैं जो लगातार बिना किसी प्रोत्साहन की उम्मीद किए अपने कर्म में लगे हुए हैं। वहीं ऐसे भी शिक्षकों की कमी नहीं है जो स्कूल व कक्षा में तो होते हैं लेकिन पढ़ाना उन्हें गवारा नहीं होता। तू पढ़ की शैली में बच्चे पढ़ा करते हैं। उन्हें शिक्षा में हो रहे नवाचारों, प्रयोगों, शोधों और रिपोर्ट आदि से कुछ भी लेने देना नहीं होता। उन्हें हर माह समय पर वेतन मिलता रहे। हिन्दी की किताब रिमझिम के अध्यापकों के लिए लिखे गए दो पेज पढ़ाना भी जरूरी नहीं लगता। उस पर तुर्रा यह कि वही लोग आरोप लगाते हैं कि हिन्दी की किताब कोई किताब है? इसमें पहले पाठ से ही वाक्य और कविताएं दी गई हैं आदि। यहां सवाल शिक्षकों पर भी उठता है कि इस प्रजाति में लिखने-पढ़ने वालों की कमी है। शिक्षक वर्ग पढ़ने के नाम पर पत्रिका-अखबार व प्रतियोगी पत्रिकाएं तो पढ़ते हैं लेकिन ऐसी किताब जो शिक्षा,साहित्य की समझ विकसित करे, इन्हें नहीं लुभातीं। शिक्षकों में पढ़ने की आदत बहुत मजबूत नहीं है।

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