Thursday, August 27, 2015

शिक्षा की प्रकृति और राजनीतिक इच्छा शक्ति




शिक्षा की प्रकृति को राजनीति और अर्थनीति काफी गहरे तक प्रभावित करती है। शिक्षा को गढ़ने में समाजो- सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ ही साथ देश की राजनीति और अर्थनीति किस प्रकार एक अहम भूमिका निभाती है इस पर गंभीरता से विमर्श करना यहां उद्देश्य है। यहां हमारी अपेक्षा शिक्षा को केंद्र में रखते हुए राजनीति और अर्थनीति के देशीय और वैश्विक प्रतिबद्धताओं,घोषणाओं और समितियों की बुनियादी चरित्र को पहचानना और उसकी मारक क्षमता को समझना है। हम यहां स्वातंत्रोत्तर शैक्षिक परिघटनाओं पर अपनी नजर रखेंगे। नई शिक्षा नीति निर्माण के पीछे की मनसा और उसकी राजनीति की परतें भी खोलने की कोशिश की जाएगी। वत्र्तमान सरकार नई राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है। देश के विभिन्न घटकों को इस विमर्श में शामिल करने की घोषणा की जा चुकी है। गौरतलब है कि अपने विचार व अपनी राय ट्विटर के तर्ज पर 180 कैरेक्टर में देने का प्रावधान है। जिन वैचारिक-मान्यताओं के आधारा पर नई राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण की जा रही है उससे ज्यादा सकारात्मक परिवत्र्तन की उम्मीद करना व रखना निराशा को बढ़ाना है। जिस किस्म की भाषायी परिवर्तनों की बात इसमें की गई है उसपर भी उचित स्थान पर विमर्श की जाएगी। पहली बात तो यही कि यदि हमें शिक्षा में राजनीति और अर्थतंत्र की धार को देखना है तो हमें 1990 में थाईलैंड के जमितियन शहर में हुए सब के लिए शिक्षा यानी ईएफए के सम्मेलन पर नजर डालना होगा। जहां से कम से कम भारतीय प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा बदलाव करवट ले रहा था। दूसरे शब्दों में 1990 के ईएफए से पूर्व और एईएफए के उत्तर भारतीय शिक्षा यानी प्राथमिक शिक्षा में कठोर और वैश्विक परिवत्र्तन घटित हुए। इससे पूर्व भारतीय प्राथमिक शिक्षा भारतीय संविधान, भारतीय समाजो-सांस्कृतिक और बुनावट को ध्यान में रखते हुए नीतियां और समितिओं की सिफारिशों के मद्दे नजर कदम उठाए गए। लेकिन 1990 की इस वैश्विक परिघटना के बाद वैश्विक बैंक, मुद्र कोष एवं नीतियां हमारी प्राथमिक शिक्षा पर हावी होती चली गईं। विस्तार से हम आगे उन प्रभावों और दुष्परिणामों की चर्चा जरूर करेंगे लेकिन यहां इतना बताना भी अपेक्षित है कि ईएफए से पूर्व और पश्चात् भारतीय शैक्षिक मानस पर बुनियादी अंतर और दृष्टि बदल रही थी। शिक्षा में हम अपने भौगोलिक, सांस्कृतिक,भाषायी पहचानों को तवज्जो दिया करते थे, लेकिन 1990 मंे हमने शिक्षा की डोर विश्व बैंक और आकाओं के हाथों सौंप दिया। इन शैक्षिक परिघटनाओं पर शिक्षाविद् प्रो. अनिल सद्गोपाल जैसे चिंतकों ने अपने स्वर और प्रतिबद्धताएं प्रकट कीं कि यदि शिक्षा का इतिहास लिखा जाएगा तो यह काल और घटना काले अक्षरों में लिखा जाएगा। प्रो सद्गोपाल ने तब आगाह किया था कि जो काम भारतीय सरकार को करना चाहिए था वह काम सरकार वल्र्ड बैंक के हाथों सौंप कर ताली पीट रही है।
आजादी के बाद शिक्षा संबंधी बनी समितियों और आयोगों की बुनियाद में झांकें तो पाएंगे कि राजनीति की बीज खासे गहरे पैठी है। आजादी के बाद के आयोगों और समितियों की संस्तुतियों और स्थापनाओं पर नजर डालने पर एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि इन समितियों पर राजतंत्र गहरे प्रभावित करता रहा है। तत्कालीन सत्ता और सरकारी की भाषा और नीति ही शिक्षा समितियों में मुखर रही हैं। हम यदि 1964-66 की कठोरी आयोग की बात करें तो कोठारी आयोग ने बड़ी शिद्दत से शिक्षा की गुणवत्ता, बजट, समान स्कूल सिस्टम, शिक्षक-छात्र अनुपात आदि पर विचार किया था। इस समिति ने जो भी सिफारिशें की थीं उन्हें एकबारगी ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। इसका हश्र इस रूप में भी देखने में आता है कि यशपाल समिति से दो ‘तीन वर्ष पूर्व आचार्य राममूर्ति समिति ;1990द्ध ने बस्ते के बोझ को कम करने के लिए ठोस शैक्षिक सिद्धांत पेश किए। इस समिति का दुखद अंत यह हुआ कि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने इस रपट की समीक्षा जनार्दन रेड्डी समिति ;1992द्ध से करवाई। रेड्डी समिति ने जैसे तैसे राममूर्ति समिति की रिपोर्ट को खारिज कर दिया।’ देखें कमलानंद झा लिखित पुस्तक पाठ्यपुस्तक की राजनीति। गौरतबल है कि समितियों की कार्यवाही को कहीं न कहीं राजनीतिक दलों एवं विचारधाराओं ने खासे प्रभावित किया। लेकिन तथ्य को नकारा नहीं जा सकता था। आधे से अधिक बच्चे जो स्कूल छोड़ देते उका कारण गरीबी नहीं,वरन स्कूली शिक्षा का उबाउपनख् नीरस पाठ्यक्रम और भयावह परीक्षा प्रणाली है। यही वजह है कि राममूर्ति समिति या फिर यशपाल समिति या अरुण घोष समिति सभी ने बस्ते के बोझ को कम करने की सिफारिश की। यह शैक्षिक गंभीरता शैक्षिक महकमों में तो महत्व रखती थीं लेकिन सरकार व राजनीति के लिए यह अहम नहीं था।
शैक्षिक समितियों को जिस राजनीति जिस दृष्टि से देखती और बरतती है वह खासे अहम है। आजादी के बाद निर्मित शैक्षिक समितियों की संस्तुतियों को वर्तमान सरकार ने कान नहीं दिया। इसका जीता जागता उदाहरण 1937 में आयोजित वर्धा शिक्षा सम्मेलन में महात्मा गांधी और डाॅ जाकिर हुसैन के नेतृत्व में आयोजित इस सम्मेलन में मूल्यों की शिक्षा पर सरकार के कान पर जू तक नहीं रेंगे। जिन मूल्यों की शिक्षा में समावेश की वकालत की गई थी उसकी जमक र अवहेलना हुई। इस तरह से अमूमन अधिकांश आयोग आम जनता के साथ होने की बजाए सत्ता के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई। यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं तो और क्या है। थोड़ा और पीछे जा कर इतिहास में झांके तो पाएंगे कि उन्नीसवीं सदी के अंत आते आते हर प्रसाद शास्त्री, गुरुदास बनर्जी, रवींद्र नाथ टैगोर और लोकेंद्रनाथ पालित ने पढ़ाई के माध्यम के रूप में मातृभाषा पर जोर दिया। 1929 की हार्टोग समिति और 1937 की बूड-एबाॅट समिति ने भी पढ़ाई के माध्यम को मातृभाषा बनाए रखने की वकालत की लेकिन इन्हें भी नजरअंदाज ही किया गया। इन पदिघटनाओं की रोशनी मंे शिक्षा में राजनीति की भूमिका को साफतौर पर समझ सकते हैं।
आजादी के बाद भारतीय प्राथमिक शिक्षा के पूरे परिदृश्य को दो भागों में बांट कर देख सकते हैं। पहला 1990 के पूर्व और दूसरा 1990 के बाद यानी सबके लिए शिक्षा शिक्षा सम्मेलन के पश्चात्। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो विश्व बैंक के सौजन्य से आयोजित ‘सब के लिए शिक्षा’ सम्मेलन में शिक्षा के व्यावसायीकरण का बीज पड़ा। इस ऐतिहासिक वैश्विक घटना को प्रो अनिल सद्गोपाल इस नजर से देखते हैं कि इस सम्मेलन ने भारत की शिक्षा के पूरे इतिहास को एक नया और नकारात्मक मोड़ दिया। थाईलैंड के जोमतियन शहर के इस सम्मेलन के पश्चात् भारतीय शिक्षा व्यवस्था इस रूप मंे करवट ली कि जहां इससे पूर्व संविधान को प्रश्रय देते हुए सांवैधानिक जवाबदेही थी वहीं जोमतियन सम्मलेन के  उत्तराद्र्ध संविधान के आधार की जगह भूमंड़लीकरण की बाजार आधारित नीतियों ने स्थान ले ली। वहीं भारत सरकार का स्थान अंतरराष्टीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने ले ली। यह एक प्रस्थान बिंदु था जहां से शिक्षा नई चाल ढली। गौरतलब है कि यहीं से शिक्षा में एक नई कसमसाहट मरोड़ ले रही थी। केंद्र और राज्य सरकारों की ओर गठित तकरीबन सभी आयोगों-बिड़ला अंबानी समिति, एन.जनार्दन रेड्डी समिति, उच्च शिक्षा पर न्यायाधीश पुन्नेय्या समिति, सैमपित्रोदा की अध्यक्षता में गठित राष्टीय ज्ञान आयोग सभी ने निजीकरण-व्यापारीकरण की प्रक्रिया को हवा ही देने का काम किया।
सन् 1968 में बनी राष्टीय शिक्षा नीति और तकरीबन बीस वर्ष बाद बनी दूसरी राष्टीय शिक्षा नीति की मूल स्थापना को किस प्रकार राजनीति से ध्वस्त किया इसे देखना भी दिलचस्प होगा। इससे पूर्व मालूम ही है कि 1964-66 में काठोरी आयोग शिक्षा की बेहतरी के लिए सिफारिशें दे चुका था। लेकिन उसपर अमल करने की बजाए उसकी धार और प्रभाव को कुंद ही करने की कोशिश की गई। यही वजह है राजनीति इच्छा शक्ति की कमी साफ झलकती है। यही वजह है कि 1986 की राष्टीय शिक्षा नीति की घोषणा कि सन् 1995 तक 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान कर दी जाएगी। गौरतलब है कि यह काम हमारे संविधान की धारा 45 के अनुसार 1960 तक पूरा कर लिया जाना था। अफसोसजनक बात है कि 2015 में भी यह लक्ष्य रास्ते में ही हांफ रहा है। इसे रफ्तार देने के लिए 2000 में डकार में संपन्न सम्मेलन में भी लक्ष्य को दुहराया गया था कि 2010 तक हम इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। लेकिन इस बार फिर राजनीति इच्छा शक्ति हार गई। सर्वविदित है कि 2015 का लक्ष्य वैश्विक स्तर पर तय किया गया था सब के लिए शिक्षा का लक्ष्य हम हासिल करे लेंगे। लेकिन अब इस तिथि को आगे खिचकाने पर विमर्श जारी है।


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