Thursday, August 27, 2015

किताबों की दुनिया में विभेदीकरण




साहित्य शब्द सुनते ही हमारे जेहन में जिस तरह की छवि बनती है वह कविता, कहानी और उपन्यास की ही होती है। क्या साहित्य महज यही है या साहित्य की सीमा में और भी विधाएं शामिल होती हैं। साहित्य का अपना क्या चरित्र है और साहित्य व्यापक स्तर पर क्या करती है? इन सवालों पर विचार करें तो पाएंगे कि साहित्य का मतलब महज पाठ्यपुस्तकों में शामिल कविता और कहानी पढ़ाना भर नहीं हैं, बल्कि पाठकों को जीवन दृष्टि प्रदान करना भी है। जीवन मूल्यों और संवेदनशीलता पैदा करना भी है। साथ ही समाज में खास वर्गों के प्रति समानता का भाव जागृत हो इसकी भी गंुजाइश साहित्य में हो।
साहित्य का शिक्षा शास्त्रीय विमर्श करें तो पाएंगे कि साहित्य हमारी पूर्वग्रहों को भी अग्रसारित करने का काम करती है। यदि कहानी व कविता विधा को लें तो वहां भी कहानियां कुछ यूं शुरू होती हैं- एक समय की बात है। किसी गांव में एक ब्राम्हण होता थे। उनके दो बेटे थे। बड़ा बहुत ज्ञानवान और छोटा नकारा। इन शुरूआती पंक्तियों में देख सकते हैं कि गांव में क्या ब्राम्हण ही होते थे। क्या उनकी बेटियां नहीं थीं। क्या उस गांव में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोग नहीं रहते थे। इस तरह से कहानियों में लिंग, जाति, वर्ण आदि को लेकर एक खास विभेद स्पष्ट देखे जा सकते हैं। शिक्षा शास्त्र और शिक्षा दर्शन इस तरह की विभेदी शिक्षा के पक्षधर नहीं हैं लेकिन पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने इस तरह की कहानी और कविताओं को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया है जिसे पढ़ कर बच्चों में एक खास किस्म के वर्गांे के साथ स्वस्थ धारणा का निर्माण नहीं होता। अपने से कमतर मानने की प्रवृत्ति का जन्म पहले पहल कक्षा में पैदा होता है। एक बुदेलखंड़ी, मालवा, भोजपुरी, डोगरी बोलने वाले बच्चों से सवाल हिन्दी में पूछे जाते हैं तब वे बच्चे जवाब जानते हुए भी भाषायी मुश्किलों की वजह से चुप रहते हैं। यदि उन बच्चों को कक्षा में उनकी भाषा और भाषायी दक्षता को लेकर मजाक बनाया जाता है तब साहित्य कहीं पीछे छूट जाता है। स्थानीय भाषा पर मानक भाषा सवार हो जाती है। यहां बच्चों की मातृभाषायी समझ को धत्ता बताते हुए मानक भाषा को अपनाने की वकालत की जाती है।
यदि राष्टीय पाठ्यचर्या 1977, 1990 व उसके बाद 2000 पर नजर डालें तो पाएंगे कि वहां चित्रों, लिंग, भाषा को लेकर संतुलित छवि नहीं मिलती। यही वजह था कि 1990 में मध्य प्रदेश में एक सर्वे किया गया कि जनजाति और महिलाओं को किस प्रकार पाठ्यपुस्तकों में दिखाया गया है। उस रिपोर्ट में पाया गया कि महज 0.1 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति की भागिदारी दिखाई गई थी। वहीं महिलाओं की उपस्थिति सिर्फ 0.2 प्रतिशत थी। एक और सर्वे और शोध पर नजर डालना जरूरी होगा जो 1994-95 में हुई। यह शोध दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षा विभाग में हुई थी। इस शोध में पांच हिन्दी भाषी राज्यों की कक्षा 5 से 8 वीं के पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन किया गया था। इस शोध का उद्देश्य था कि इन पाठ्यपुस्तकों में महिलाओं और जनजातियों को शामिल किया गया है। रिपोर्ट की मानें तो स्थिति बेहद चिंताजनक है। महज 0.00 और 0.1 फीसदी उपस्थिति दर्ज देखी गई थी।
राष्टीय शिक्षा नीति 1986 की रोशनी में बनी पाठ्यपुस्तकों पर भेदभाव-जाति, वर्ग, लिंग का आरोप लगा था। इन आरोपों से उबरने के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति समिति का गठन किया गया। उन्हें सुझाव देना था कि कहां कहां इस तरह की गलतियां हुईं हैं और उन्हें कैसे सुधारा जा सकता है। उस सुझाव के बाद बने पाठ्यपुस्तकों पर नजर डालें तो स्थिति और भी हास्यास्पद नजर आती है। महिलाओं की उपस्थिति तो बढ़ी लेकिन उनमें काम और पूर्वग्रह पूर्ववत् बनी रहीं। महिलाएं बाल बनाती हुईं महिलाएं खाना बनाती हुई पारंपरिक कामों में लीन दिखाई गईं।
सचपूछा जाए तो साहित्य की दुनिया इस प्रकार के विभेदीकरण का स्थान नहीं देती। लेकिन न तो साहित्य और न साहित्यकार अपने पूर्वग्रहों से बच पाता है। कहीं न कहीं किसी न किसी रूप मंे निजी मान्यताओं, धारणाओं और मूल्यों को साहित्य तो जीवित रखता है। यदि हमें कहें तो किताबें निर्दोष नहीं होतीं तो गलत नहीं होगा। साहित्य का मकसद पाठकों को एक बेहतर मनुष्य बनाने और अपने अनुभवों को व्यापक करने में मदद करना है।
साहित्य की दुनिया पर एक नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि साहित्य भी कक्षा कक्षा होने वाले विभेद के फांक को बढ़ाने वाला ही होता है। विभिन्न तरह के विभेदों और वादों में बंटा साहित्य चाहे वह दलित विमर्श हो या आदीवासी साहित्य या फिर प्रवासी साहित्य अमूमन इन साहित्यिक कृतियों में अपने वादों और विचारों को ही पोषित किया जाता है। एक बच्चे की दृष्टि से साहित्य को देखें तो उनके पास कविता और कहानी के रूप में पहंुचती हैं। वह कहानी बड़ों की दुनिया के बारे में होती हैं। बच्चों के साहित्य जिन नामों से मिलते हैं वे चिन्टू के कारनामें, टीपू की सैर आदि। जहां वैज्ञानिक सोच और कल्पना की गुंजाइश के स्थान पर पूर्व निर्धारित सोच और निर्णय को परोसा जाता है। बाल साहित्य पर नजर डालें तो जंगल, पेड़-पौधे, जानवर आदि की कहानियां होती हैं या फिर परियों, सपनों की दुनिया बुनी जाती हैं। इस किस्म के साहित्य से कैसे गुजरें इसकी समझ और औजार शिक्षकों को देना बेहद जरूरी है। ऐसे में कक्षा में शिक्षक की भूमिका अहम हो जाती है। यदि शिक्षक इस तरह की स्थिति में स्वविवेक का इस्तमाल नहीं करता तब बच्चों में स्वस्थ विचार नहीं पहुंच पाते।
बच्चों के साहित्य और आम साहित्य में यदि कोई बुनियादी फांक या बारीक सा विभाजन कुछ हो सकता है तो वह यही कि एक साहित्य वयस्कों की दुनिया की कहानी बताती है तो दूसरा साहित्य बड़ों के द्वारा बच्चों की दुनिया को समझने और समझाने की कोशिश करता है। एक ओर हम अपनी आपबीती घटनाओं, अनुभवों को अपने ही वर्गों में साझा करते हैं। वहीं दूसरी ओर बच्चों की दुनिया को बड़ों के चश्मों से देखकर व्याख्यायित करते हैं। दरअसल बाल साहित्य के नाम पर हम वयस्क अपनी ही नजर से उनकी दुनिया को देखने और समझने की कोशिश करते हैं। जरूरत इस बात की भी है कि हमें बच्चों की आवश्यकता और उनकी जरूरतों को ध्यान में रखकर उनके लिए साहित्य तैयार करें।
साहित्य के अंदर की दुनिया में कैसे और किन वर्गों को हाशिए पर धकेला जाता है इसे भी देखते चलें। हमारे ही समाज के कई वर्ग हैं जो हमारे पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों से बाहर रखे जाते हैं। पाठ्यपुस्तकों से ख़ासजाति संबंधी एवं वर्ग संबंधी शब्द जगत को भी हाशिए पर रखना व मुख्यधारा की भाषा से काट कर रखा जाता है। हाल ही में एक खास विचार धारा की ओर से मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सुझाव दिया गया कि बच्चों की किताबों से उर्दू, अरबी, फारसी एवं अंगरेजी शब्दों को हटा दिया जाए। उस सुझाव में उदाहरण स्वरूप शब्दों की सूची भी सौंपी गई थी। तर्क दिया गया कि उक्त शब्द हमारे हिन्दी के वर्णमाला को दुषित कर रहे हैं। ज़रा उन शब्दों पर नजर डालते हैं जिन्हें पाठ्यपुस्तकों से निकाल बाहर करने की वकालत की गई वे शब्द हैं- शरारत, ख़बरदार, दोस्त, गायब, मौका, मुश्किल आदि जिन शब्दों को बच्चों की स्कूली किताबों से बाहर का रास्ता दिखाया गया था। अजेय कुमार, ‘वैज्ञानिक सोच के विरूद्ध’, जनसत्ता, 12 दिसंबर 2014, उन जगहों पर संस्कृत और हिन्दी के शुद्ध शब्दों को स्थानांतरित किया गया था।
सवाल यह है कि कुछ शब्दों, वाक्यों, गद्यांशों को बदल देने से शिक्षा में समता और समानता की स्थिति पैदा हो सकती है? क्या हिन्दी के शब्दों को किताबों में ठूंस देने से तथाकथित मूल्य, संस्कार बच्चों में कोचे जा सकते हैं? क्या बच्चों के दिमाग में वयस्कों की समझ और पूर्वग्रह को रोपना उचित है? आदि प्रश्नों से मुंह नहीं मोड़ सकते। लेकिन अफसोस की बात है कि इस तरह की घटनाएं बड़ी ही सोची समझी रणनीति के तहत की जा रही हैं। हम अपने बच्चों को किस तरह की तालीम देने की कोशिश कर रहे हैं उसे स्पष्ट करने की आवश्यकता है। हमें यह भी साफ करने की जरूरत है कि हम किस किस्म की शिक्षा किसकी भाषा में देना चाह रहे हैं। महज शब्दों, वाक्यों, उदाहरणों को किताबों से बाहर कर देना ही समाधान नहीं है।
दरअसल साहित्य कुछ पूर्वग्रहों को अग्रसारित करने का भी काम करता है। यदि समग्रता में देखें तो हमारा स्कूल और हमारी पाठ्यपुस्तकें भी विभेदीकरण के अंतर को निरंतर बरकरार रखने में अपनी भूमिका निभाते हैं। यदि हम झूठन व मुर्दहिया या फिर मणीकर्णिका को ध्यान से पढ़े ंतो वहां स्कूल का शिक्षक खुद डाॅ तुलसी राम के शब्दों में भाषायी हिंसा किया करता था। साथ ही जाति सूचक शब्दों का इस्तमाल डाॅ तुलसी के साथ साथ अन्य दलित बच्चों के साथ भी किया करते थे। जिन मानसिक तनावों और संवेदनात्मक उथलपुथल से डाॅ तुलसी का बालमन गुजरा ऐसे हजारों बच्चे यदि आज भी विभिन्न स्कूलों में जी रहे हैं तो इसे किस दृष्टि से देखे जाने की आवश्यकता है। क्या हमें ठहर कर इसपर विचार नहीं करना चाहिए कि आजादी के 6 दशकों के बाद भी यदि समाज में जाति,धर्म,वर्ण, भाषा के आधार पर स्कूलों में बच्चों के साथ भेदभाव हो रहे हैं तो इसके पीछे हमारी कौन सी और किस स्तर की चिंतन प्रक्रिया जिम्मेदार है।
हम दलित व समाज के अन्य पिछड़े तबकों से आने बच्चों की बात तो बाद में करेंगे यहां तो पूरा का पूरा पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकें भी बच्चों में खास वर्ग, जाति, भाषा की श्रेष्ठता को लेकर लगातार विष वमन कर रहे हैं। ऐसे में हमें अपने शिक्षा और साहित्य के वृहत्त उद्देश्यों को पुनः व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। शिक्षा की पात्रता कभी भी जाति, वर्ण, भाषा आदि नहीं रही है। यदि किसी भी समाज में ऐसा हो रहा है तो वह शैक्षिक दर्शन और शैक्षिक विमर्श से कोई वास्ता नहीं रखता। उसका यदि कोई रिश्ता होता होगा तो वह राजनीतिक व अन्य प्रलोभनों को हो सकता है कम से कम शिक्षा का उससे कोई लेना देना नहीं है।

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