Monday, February 16, 2015

मेले में पुस्तक- विमोचन



कौशलेंद्र प्रपन्न
इन दिनों पुस्तक मेला चल रहा है। हर दिन कम से कम 50 पुस्तकों का विमोचन तो हो ही रहा है ऐसा मान कर चलते हैं। कुछ किताबों का लोकार्पण पूर्व तयशुदा कार्यक्रमों में दर्ज है। उन विमोचन कार्यक्रम में विमोचनकर्ता का नाम भी दिया गया है। उन से उम्मींद की जाती है कि विमोचनकर्ता तथाकथित पुस्तक को पढ़कर आएंगे। लेकिन निराशा तब होती है जब वे भी यूं ही किताब के फ्लैप पढ़कर बोलते हैं। यहां तक भी चलता है। लेकिन जब वे लेखक के बारे में बोलते हैं तब उनकी अनभिज्ञता सामने आती है। लेखक के साथ ही लेखन पर बोलते वक्त उनके होमवर्क की झलक मिलती है।
यदि पुस्तक मेले में पुस्तक विमोचन के चरित्र को देखें तो दो तस्वीरें दिखाई देंगी। पहला, पुस्तक विमोचनकर्ता और पुस्तक पूर्व निर्धारित होती हैं। वक्ता भी पहले से तय होते हैं। जैसा कि नेशनल बुक टस्ट के कार्यक्रमों में साहित्य मंच और लेखक मंच, आॅथर काॅनर आदि में पहले से पुस्तक विमोचन, वक्ता, संचालक, मुख्य अतिथि आदि तय हैं। लेकिन उनमें से भी अंतिम समय में या तो संचालक नहीं होता, या फिर किन्हीं कारणों से मुख्य अतिथि नहीं आते। ऐसे में आनन फानन में जो तथाकथित नामी लेखक, कवि नजर आता है उसे पकड़ कर बैठा दिया जाता है। ऐसे में वक्ता, संचालक, मुख्य अतिथि की परेशानी और तैयार की कमी दिखाई देती है। लेकिन ऐसे में वे अचानक मंच पर बैठा दिए गए अतिथि की मनोदशा को समझा जा सकता है। ताज्जुब तो तब होता है कि जब पूर्व निर्धारित वक्ता, मुख्य अतिथि किताब पढ़कर नहीं आते। वजह जो भी हो लेकिन लेखक के साथ न्याय नहीं हो पाता।
पूरे मेले में कुछ लेखक,कवि, पत्रकार यूं ही पूरे दिन टहलते हुए मिल जाएंगे। इनकी संख्या तीस से पचास की होगी। जो कभी किसी स्टाॅल पर तो कभी किसी और स्टाॅल पर नजर आते हैं। दरअसल अवकाश प्राप्त हमारे लेखक, कवि, आलोचक अपनी दिनचर्या में नौ दिन शामिल कर लेते हैं। दो फायदे होते हैं, एक लोगों से मुलाकात हो जाती है। दूसरी पूरे दिन नई नई किताबों के घूंघट उठाने का मौका भी हाथ लग जाता है। कहीं किताबें मिल जाती हैं तो कहीं शाॅल, मानदेय आदि।
दूसरा, ऐसे पुस्तक विमोचन होते हैं जिन्हें ने.बी.टी के मंच नहीं मिल पाए। वे प्रकाशक, लेखक अपने स्टाॅल पर ही खड़े होकर पुस्तक विमोचन कर देते हैं। इनके लेखक तो तय होते हैं लेकिन विमोचनकर्ता तय नहीं होते। जहां कोई कवि, लेखक, पत्रकार नजर आ गए उन्हें वहीं से पकड़कर स्टाॅल तक खींच लिया जाता है। हाथों में किताब की प्रति पकड़ा दिया जाता है। फोटो खींच कर तुरंत सोशल मीडिया, फेसबुक पर चेप दिया जाता है फलां फलां के हाथों पुस्तक का लोकार्पण पुस्तक मेले में। और देखते ही देखते चंद लाइक और कमेंट भी मिल जाते हैं। ऐसे माहौल में पुस्तक विमोचनकर्ता को कई बार लेखक का नाम भी नहीं जानता हालांकि उसकी भी मजबूरी समझी जा सकती है। जब ऐसे समय में पकड़कर पुस्तक विमोचन के लिए खड़ा कर दिया जाए।
पुस्तक प्रकाशन जगत में विकेंद्रीकरण का यह लाभ हुआ कि बड़े बड़े प्रकाशकों की एकछत्रता टूटी वहीं छोटे छोटे प्रकाशकों की दुकान चल पड़ी। एक किताब दस हजार से पंद्रह हजार में छप जाती है। इन प्रकाशकों को काम मिलना शुरू हो गया। साथ ही लेखकों को भी लंबे इंतजार से निजात मिल गया। लेकिन इस प्रक्रिया में कहीं न कहीं गुणवत्ता प्रभावित हुई। किताबें छपें इससे किसी को गुरेज नहीं लेकिन किताब वाकई किताब की गुणवत्ता भी पूरी करे। आज जिस रफ्तार से किताबें छप रही हैं उससे एक चीज से स्पष्ट है कि किताबों की दुनिया अभी सूखी नहीं है। यह अलग विमर्श का मसला कि रोज दिन छपने वाली किताबों का पाठक वर्ग कौन है? क्या इन किताबों को संज्ञान में ली भी जाती हैं या नहीं?
अमूमन किताबें विमोचन के बाद गुमनामी में खो जाती हैं। कहीं उनकी समीक्षा, आलोचना नहीं होती। बस अपने करीबी दोस्तों, रिश्तेदारों को भेंट करने में काम आती हैं। यदि कहीं पहंुच है तो उसकी पुस्तक परिचय छप जाती है। वरना जिस तरह से इन किताबों का प्रकाशन,विमोचन होता है उसी तरह से कहीं सेल्फ में पड़ी रहती हैं।
एकबारगी यह आरोप भी जाता रहा है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट की दुनिया में किताबों पर खतरा मंड़रा रहा है। किताबें खूब अच्छी तदाद में छापी और पढ़ी जा रही हैं। किताबें के प्रकाशकों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकाशन जगत में विकेंद्रीकरण का लाभ लेखकों को मिला है। यह अलग बात है कि उसके लिए लेखक को अपनी जेब से खर्च करने पड़ते हैं। पाठक और किताबों का रिश्ता गहरा रहा है। वह कहीं से भी छपे यदि किताब में दम है तो वह पाठकों तक पहुंच ही जाती है। यदि लेखक-प्रकाशक मिल कर साझा प्रयास करें तो किताबों की महत्ता और पहुंच और ज्यादा हो सकती है। वह इस तरह कि किताबों का भी प्रचार किया जाए। आज की तारीख में सोशल मीडिया सूचना के प्रसारण और विस्तार में अच्छी खासी भूमिका निभा रहा है। सही समय पर सही किताब का प्रमोशन जरूरी है वरना अच्छी से अच्छी किताबें पाठकों तक नहीं पहुंच पातीं।


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