Thursday, February 12, 2015

जेंडर विमर्श और मूल्यपरक शिक्षा पर संवाद


कक्षा में साठ के आस-पास शिक्षक और शिक्षिकाएं थीं। इस शिक्षकों और शिक्षिकाओं के बीच जेंडर सेंसेटाइजेशन पर संवाद करना था। जिन मूल बहानों से मई में रू ब रू हुआ था वही बहाने यहां भी खडत्रे हुए। मसलन बहुत सर्दी है। ठिठुर रहे हैं। सर क्या पढ़ाओंगे। छोड़ो भी क्या पढ़ाओंगे। जेंडर वेडर बस यूं ही है। आप भी मजे करो हमें भी छोड़े धूप सेकने दो। मई में गर्मी का बहाना था। दिसम्बर में सर्दी आ खड़ी हुई थी। मगर संवाद तो करना ही था। लेकिन कक्षा में उपस्थित शिक्षक/शिक्षिकाओं को संवाद के लिए उकसाना एक बड़ी चुनौती थी।
संवाद के लिए उन्हें कुरेदना पड़ा। आपमें से कितने ऐसे हैं जो मानते हैं कि पत्नियां कोई भी निर्णय लेने में स्वतंत्र होती हैं। पति की उनके निर्णय में कितनी भूमिका होती है। अपने पति को अपने निर्णय प्रक्रिया में कितना स्थान देती हैं। बस क्या था कई हाथ खड़े ही गए। नाम रहने देते हैं। उनकी बातें यहां रखते हैं। ‘ मैं तो निर्णय लेने में उनका तब मदद लेती हूं जब निर्णय को टालता होता है।’ ‘हमें निर्णय लेने में अपनी भूमिका व जिम्मेदारी को छुपाना होता है तब हम उन पर डाल देते हैं।’
‘निर्णय तो उनका ही होता है। हम तो बस उनके निर्णय को फाॅलो करते हैं।’ ‘ सर आप भी जानते हो। एक ही छत के नीचे रहना है। कौन चिक चिक सहना चाहेगा सो जो निर्णय पति लेते हैं हम उसे स्वीकार लेते हैं।’
इसी तरह की बातें कक्षा में उभर कर आईं। जब मैंने कहा महिलाएं भी सदियों से गुलाम रही हैं। उन्हें इस गुलामी से मुक्ति के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करनी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा की पंक्ति रखीं ‘ चुप्पी की संस्कृति ही गुलामी को अग्रसारित करती है’ यदि गुलामी को तोड़ना है तो चुप्पी तोड़नी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा ने उत्पीडि़तों का शिक्षा शास्त्र पुस्तक लिखा उसे पढ़ कर जिस तरह की चेतना जागती है वही अपनी मुक्ति की राह बना पाते हैं। साथ ही उन्हें जाॅन स्टुआॅर्ट मिल की पुस्तक स्त्री और पराधीनता को साइट किया। कुछ स्त्रियों की आंखें विस्फारित हुईं। मगर वहीं शिक्षकों के तेवर बदल चूके थे। ये सब बेकार की बातें हैं। पुरूष प्रधान समाज है। लुगाइयां घर में ही अच्छी लगती हैं। इसी तरह के तर्क कक्षा में तैर रहे थे।
जेंड़र संवेदनशीलता पर लंबी बातचीत हुई मगर शिक्षकों की सोच गोया अभी भी 19 वीं सदी में डोल रही थीं। कक्षा में कैसे इस तरह के विमर्श को वे लोग हैंडल करते होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है। दरअसल वो नई सोच और शिक्षा के नए विमर्श को अपने दिमाग में उतरने की इज़ाजत ही नहीं देना चाहते थे। बहरहाल यदि शिक्षिकाओं में इसके प्रति थोड़ी भी चेतना जागती है तो उम्मींद की किरण बनी रहेगी।
जेंडर विमर्श और मूल्यपरक शिक्षा पर संवाद
कक्षा में साठ के आस-पास शिक्षक और शिक्षिकाएं थीं। इस शिक्षकों और शिक्षिकाओं के बीच जेंडर सेंसेटाइजेशन पर संवाद करना था। जिन मूल बहानों से मई में रू ब रू हुआ था वही बहाने यहां भी खडत्रे हुए। मसलन बहुत सर्दी है। ठिठुर रहे हैं। सर क्या पढ़ाओंगे। छोड़ो भी क्या पढ़ाओंगे। जेंडर वेडर बस यूं ही है। आप भी मजे करो हमें भी छोड़े धूप सेकने दो। मई में गर्मी का बहाना था। दिसम्बर में सर्दी आ खड़ी हुई थी। मगर संवाद तो करना ही था। लेकिन कक्षा में उपस्थित शिक्षक/शिक्षिकाओं को संवाद के लिए उकसाना एक बड़ी चुनौती थी।
संवाद के लिए उन्हें कुरेदना पड़ा। आपमें से कितने ऐसे हैं जो मानते हैं कि पत्नियां कोई भी निर्णय लेने में स्वतंत्र होती हैं। पति की उनके निर्णय में कितनी भूमिका होती है। अपने पति को अपने निर्णय प्रक्रिया में कितना स्थान देती हैं। बस क्या था कई हाथ खड़े ही गए। नाम रहने देते हैं। उनकी बातें यहां रखते हैं। ‘ मैं तो निर्णय लेने में उनका तब मदद लेती हूं जब निर्णय को टालता होता है।’ ‘हमें निर्णय लेने में अपनी भूमिका व जिम्मेदारी को छुपाना होता है तब हम उन पर डाल देते हैं।’
‘निर्णय तो उनका ही होता है। हम तो बस उनके निर्णय को फाॅलो करते हैं।’ ‘ सर आप भी जानते हो। एक ही छत के नीचे रहना है। कौन चिक चिक सहना चाहेगा सो जो निर्णय पति लेते हैं हम उसे स्वीकार लेते हैं।’
इसी तरह की बातें कक्षा में उभर कर आईं। जब मैंने कहा महिलाएं भी सदियों से गुलाम रही हैं। उन्हें इस गुलामी से मुक्ति के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करनी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा की पंक्ति रखीं ‘ चुप्पी की संस्कृति ही गुलामी को अग्रसारित करती है’ यदि गुलामी को तोड़ना है तो चुप्पी तोड़नी पड़ेगी। पाॅलो फ्रेरा ने उत्पीडि़तों का शिक्षा शास्त्र पुस्तक लिखा उसे पढ़ कर जिस तरह की चेतना जागती है वही अपनी मुक्ति की राह बना पाते हैं। साथ ही उन्हें जाॅन स्टुआॅर्ट मिल की पुस्तक स्त्री और पराधीनता को साइट किया। कुछ स्त्रियों की आंखें विस्फारित हुईं। मगर वहीं शिक्षकों के तेवर बदल चूके थे। ये सब बेकार की बातें हैं। पुरूष प्रधान समाज है। लुगाइयां घर में ही अच्छी लगती हैं। इसी तरह के तर्क कक्षा में तैर रहे थे।
जेंड़र संवेदनशीलता पर लंबी बातचीत हुई मगर शिक्षकों की सोच गोया अभी भी 19 वीं सदी में डोल रही थीं। कक्षा में कैसे इस तरह के विमर्श को वे लोग हैंडल करते होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है। दरअसल वो नई सोच और शिक्षा के नए विमर्श को अपने दिमाग में उतरने की इज़ाजत ही नहीं देना चाहते थे। बहरहाल यदि शिक्षिकाओं में इसके प्रति थोड़ी भी चेतना जागती है तो उम्मींद की किरण बनी रहेगी।

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