Thursday, February 12, 2015

आंकड़ों से बाहर बच्चे और यूनेस्को-यूनिसेफ रिपोर्ट



कौशलेंद्र प्रपन्न
इस सच्चायी से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि आज भी हमारे लाखों बच्चे स्कूली शिक्षा हासिल करने से महरूम हैं। इसकी संख्या हजारों में नहीं बल्कि लाखों में है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय पिछले साल स्वीकार कर चुकी है कि देश में तकरीबन 80 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। लेकिन यूनेस्कों और यूनिसेफ की हालिया साझा रिपोर्ट ‘फिक्सिंग द ब्रोकेन प्राॅमिस आॅफ एजुकेशन फाॅर आॅलः फाइंंिडग्स द ग्लोबल इनीशिएटिव आॅन आउट आॅफ स्कूल चिल्डेन’ में बताया गया है कि 2000 से 2012 के बीच स्कूलों से बाहर बच्चों की संख्या में कमी आई है। रिपोर्ट की मानें तो भारत में 2000 से 2012 से बीच स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या 1.6 करोड़ की कमी आई है। आंकड़ों के पहाड़ पर खड़े हो कर सच्चाई नहीं दिखाई देती। पिछले साल 2014 में जब एमएचआरडी ने 80 लाख बच्चों की स्कूल से बाहर होने का आंकड़ा प्रस्तुत किया था तब देश के अन्य गैर सरकारी संस्थाओं के कान खड़े हो गए थे। उन्होंने इन आंकड़ों की जमीनी हकीकत का पता लगाया जिसमें मालूम हुआ कि अकेले भारत में 7 करोड़ 80 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं।
सहस्राब्दि विकास लक्ष्य एमडीजी और सबके लिए शिक्षा इएफए 1990 और 2000 में तय किया गया था कि आगामी 2015 तक सभी बच्चों ‘6 से 14 साल तक के’ बुनियादी शिक्षा हासिल करा चुकेंगे। लेकिन वत्र्तमान सच्चाई यह है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के लागू होने के बाद भी हमारे 7 करोड़ से ज्यादा बच्चे बुनियादी शिक्षा से वंचित हैं। दरअसल 1990 में ‘सब के लिए शिक्षा’ एवं ‘सहस्राब्दि विकास लक्ष्य 2000’ में तय किया गया था कि हम अपने तमाम बच्चों को 2015 तक प्राथमिक शिक्षा मुहैया करा देंगे। लेकिन हकीकत यह है कि अभी भी प्राथमिक शिक्षायी तालीम से बच्चे महरूम हैं।
गौरतलब है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 और इएफए 1990 एवं एमडीजी गोल 2000 का लक्ष्य था कि हम सभी बच्चों को कम से कम बुनियादी शिक्षा यानी कक्षा एक से आठवीं तक की तालीम प्रदान करेंगे। लेकिन बुनियादी शिक्षा को बीच में छोड़ देने वाले बच्चों की ओर देखें तो पाएंगे कि सबसे बड़ा कारण उन स्कूलों में शौचालय का न होना है। स्कूलों में शौचालय का न होना खासकर बच्चियों के लिए ज्यादा परेशानी का सबब बनता है। ‘असर’ या ‘डाईस’ की फ्लैश रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि इन्हीं कारणों से बच्चियां स्कूल नहीं जा पातीं। सत्र के बीच में स्कूल छोड़ जाने के पीछे कई कारणों में से एक शौचालय का न होना है। वहीं आर्थिक कारण भी प्रमुखता से रेखांकित किए गए हैं। बच्चे स्कूल नहीं जा पाते या स्कूल बीच में छोड़ देते हैं तो इसमें जितना दोषी सरकार है उससे कहीं ज्यादा नागर समाज भी है। जब हम एक शहर के सुंदरीकरण की योजना बनाते हैं तब स्वीमिंग पुल, जीम खाना, माॅल की योजना तो बनाते हैं लेकिन स्कूल और बच्चे हमारी चिंता से बाहर होते हैं। उसपर तुर्रा यह कि निजी स्कूलों को जितना तवज्जो दिया जाता है क्या हम सरकारी स्कूलों के प्रयासों की सराहना करते हैं? सच पूछा जाए तो हम सरकारी स्कूलों की बेहतरी के लिए नागर समाज न तो जागरूक है और न ही प्रयासरत।
यूनिसेफ और यूनेस्को की इस साझा रिपोर्ट की मानें तो भारत में 5.881 करोड़ लड़कियां और 6.371 करोड़ लड़के प्राथमिक कक्षाओं के छात्र-छात्रा हैं। रिपोर्ट के अनुसार 2011 तक प्राथमिक कक्षाओं के उम्र के 14 लाख बच्चे भारत में स्कूल नहीं जाते। जिनमें 18 फीसदी लड़कियां और 14 फीसदी लड़कों की संख्या है। गौरतलब है कि इन आंकड़ों की सच्चाई आंकें तो इन संख्याओं से ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर मिलेंगे। यदि सरकारी और गैर सरकारी आंकड़ों की रोशनी में देखें तो एमएचआरडी की 2012-13 और 2013-14 की रिपोर्ट देखें तो पाएंगे कि अभी भी 80 लाख बच्चे स्कूल बाहर हैं। हैरानी की बात यह है कि पिछले साल तक जो संख्या 80 लाख थी वह छः माह के भीतर इतनी तेजी से कम कैसे हो गई। इन आंकड़ों से शेष बच्चे बाहर हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। हां नामांकन की संख्या तो बढ़ी तो बढ़ी हैं लेकिन बीच में ही स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या भी कोई कम नहीं है।
स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता और बुनियादी शिक्षा मुहैया करा पाएं यह हमारी प्रमुख चिंता रही है। यही वजह है कि हमने शिक्षा के अधिकार अधिनियम बनाया। हमने 1990 में इएफए का लक्ष्य निर्धारित किया और 2000 में सहस्राब्दि लक्ष्य में बच्चों की बुनियादी शिक्षा की प्रमुखता से वकालत की। लेकिन आंकड़ों से बाहर बच्चों को कैसे स्कूली शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ें इसके लिए हमें रणनीति बनाने की आवश्यकता है। मालूम हो कि 31 मार्च 2015 तक सब के लिए शिक्षा और आरटीई के लक्ष्यों को हासिल करने की अंतिम तारीख है।


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