Sunday, May 16, 2010

मकानमालिक की जलन

मकानमालिक की जलन या यूँ कहें कि अगर आप कुछ खरीद कर ला रहे हैं और आपका मकान मालिक देख ले तो आपनी खैर नहीं। वो सोचते हैं किरायेदार को कंजर होते हैं उन्हें फ्रिज, टीवी के इस्तमाल का हुक ही नहीं। किरायेदार हैं तो वो भिखमंगे हैं। उन्हें कभी भी घर से खदेर जा सकता है। इतना ही नहीं मकान मालिक के नखरे और घर खली करने की कई नायब तरीके होते हैं -

घर रेनोवेत करना है, घर में शादी है, बला बला। दरअसल उन्हें ज़यादा किराया चाहिए होता है लेखिन मुह खोल कर नहीं मांगते। मांगते किसे कहेंगे ? लेकिन साहिब किरायेदार तो खानाबदोश होता है। हर समय डेरा डंडा सर पर लेकर चलना होता है।

घर नहीं तो सामान खरीदने का हक़ नहीं। घर नहीं तो कुछ भी नहीं। पहले इन्सान को घर बनाना चाहिए। तब कुछ और काम करे। दिल्ली में गेम होना है मगर हर्जाना स्टुडेंट्स, कम कमाने वाले को भरना होगा। हर चीज महँगी। घर किराये पर लेने चलें तो सर चक्र जाता है। जिस कोठरी का दम १००० रूपये होगें उसकी कीमत ३००० मांगी जाती है। कोई सवाल करने वाला नहीं। उस पर आप को कई सवाल के जबाब देने होंगे - बिहार , पत्रकार , वकील , फॅमिली को जिस हम घर नहीं देते। यानि किराये पर रहना है तो न शादी करें और न सामान रखें। तब मकान मिल सकता है।

जगजीत सिंह का ग़ज़ल है -

हम तो हैं परदेश में देश में निकला होगा चाँद .....

इक अकेला इस शहर में आशियाना धुन्धता है आबुदाना धेन्द्ता है.....

गुलाम अली को याद करने का मन हुवा -

हम तेरे शहर में आये हैं मुसाफिर की तरह....

ग़ज़ल या गीत तो बोहोत हैं मगर इनमे रह नहीं सकते। इक मकान ही चहिये। जो आपके शहर में मुश्किल है। चलो ग़ालिब अब तेरे शहर में जी नहीं लगता। सब के सब सलीब है॥

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