Friday, October 24, 2008

आखें हैं की मानती नही

सभा में या फिर भीड़ में हमारी आखें अक्सर कुछ तलाशती हैं। वही चेहरा वही , भावों को धुन्दती हैं जिसको देख कर जी खुश हो जाता है ।


No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...