Friday, February 10, 2017

बंद होते स्कूल को बचाना


कौशलेंद्र प्रपन्न
दिल्ली का एक पॉश इलाका हौजख़ास। लक्षमण पब्लिक स्कूल की दीवार से सटे सड़ा एक सरकारी प्राथमिक स्कूल। बगल में दिल्ली पुलिस कॉलोनी। हौजख़ास मेटो स्टेशन से सटा। कभी इस स्कूल में बच्चे खूब हुआ करते थे। जब से मेटो के काम शुरू हुए बच्चों को चौड़ी सड़क पार करने में मुश्किलें आने लगीं। इस स्कूल में आस पास के बच्चे नहीं पढ़ाकरते थे। मसलन पुलिस कॉलोनी, हौजख़ास आदि। यहां बच्चे आया करते थे साकेत, आइआइटी गेट, आर के पुरम की झोपड़ पट्टियों से। कुछ अधिकांश बच्चे एक दो किलो मीटर का रास्ता पैदल तय किया करते थे। कुछ अभिभावक जिनके पास ऑटो हुआ करता था वे अपने बच्चों को ऑटो में छोड़ दिया करते थे।
कभी इस स्कूल में चार से पांच सौ बच्चे और तीस चालीस टीचर हुआ करते थे। वक्त की मार देखिए देखते देखते बच्चे घटने लगे। पिछले साल आलम यह हो गया कि प्रशासन, शिक्षा विभाग ने तय किया कि इस स्कूल को बंद कर दिया जाए। जब बच्चे ही बीस हों तो इतनी बड़ी बिल्डिंग, बिजली,पानी, स्टॉफ पर क्योंकर खर्च किया जाए। स्टॉफ को दूसरे दूसरे स्कूलों में भेज दिया गया। स्कूल में ताला लगने की स्थिति आ गई। एक जीता जागता, खिलखिलाता स्कूल अंतिम सांसें ले रहा था।
एक निजी संस्था टेक मन्द्रि फाउंडेशन ने प्रशासन को प्रस्ताव दिया कि इस स्कूल को बंद न किया जाए। आप चाहें तो हम इसे चलाने की कोशिश करते हैं। आख़िर बात आग बढ़ी लेकिन साथ ही एक संदेह भी कि निजी कंपनी व्यवसायी को देना ख़तरे से खाली नहीं है। वैसे भी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप पर दसियों सवाल खड़े किए जाए रहे हों। ऐसे में शिक्षा विभाग ने कदम उठाया और टेक महिन्द्रा फाउंडेशन ने इस स्कूल में एक अन्य शैक्षिक संस्था के सहयोग से स्कूल की इमारत में से महज चार कमरों में काम करना शुरू किया।
आज की तारीख में इस स्कूल में तकरीबन चालीस बच्चे हैं। नर्सरी, कक्षा 1, 2, 3, 4 और 5 में बच्चे पढ़े रहे हैं। एक और दो को एक साथ और तीन, चार और पांचवीं कक्षा को एक साथ किया गया है। इन बच्चों को देख कर ज़रा भी महसूस नहीं होता कि ये सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। तेज तर्रार सवालों की झड़ी लगाने वाले इन बच्चों की आंखों में सपने हैं। उन सपनों को पूरा करने की ललक और तड़प भी नजर आती है। कभी इन बच्चों से बात करने का मौका मिले तो जान पाएंगे कि पढ़ने के प्रति इनका नजरिया क्या है। विषयवार इनकी गति भी संतोषप्रद है।
राजस्थान, उत्तराखंड़, बंगाल, पंजाब आदि राज्यों में पिछले कुछ सालों में चार हजार से लेकर अट्ठारह हजार सरकारी स्कूलों को बंद किए जा चुके हैं। या फिर सरकारी स्कूलों को इस तर्क पर निजी संस्थानाओं को चलाने के लिए दे दिया गया कि सरकार इन्हें चला पाने में सक्षम नहीं है।
आरटीई लागू हुए तकरीबन छह साल पूरे हो चुके हैं लेकिन अभी भी ऐसे स्कूल हैं जहां पाने का पानी, शौचालय, शिक्षक आदि नहीं हैं। जहां हैं भी वे इस्तमाल के योग्य नहीं हैं। एक बारगी निजी कंपनियों की मदद लेना या उन्हें सरकारी स्कूलों को सौंपना गलत है यदि उनकी मनसा में खोट नहीं है तो। यदि ऐसा ही होता तो जिस स्कूल की चर्चा की गई है वहां स्कूल की काया ही बदल चुकी है। वरना सरकार ने तो हाथ खड़े कर दिए थे।
आज सरकारी स्कूलों को बचाने की जरूरत है। जिस प्रकार से राजनेताओं ने एक एक गांव को गोद लिया और उसकी काय पलट करने की ठानी उसी तर्ज पर यदि सरकारी स्कूलों को स्थानीय निकाय के चयनित प्रतिनिधि गोद ले लें तो सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार संभव है। याद हो कि उत्तर प्रदेश न्यायालय ने दो वर्ष पूर्व आदेश दिए थे कि हर सरकारी अधिकारी को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य होगा। हकीकतन ऐसा अमल में नहीं हुआ। ज़रा कल्पना की जा सकती है कि यदि सरकारी स्कूलों में स्थानीय अधिकारियों के बच्चे आने लगें तो वहां का मंजर कैसे होगा। खुद ब खुद शिक्षक, शिक्षा विभाग में एक आमूल परिवर्तन हो जाएगा।


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