Tuesday, June 14, 2016

परीक्षा जिंदगी से बड़ी नहीं होती


कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘वो पांचवीं की परीक्षा के बाद रिजल्ट लेने नहीं आई। उसकी मां आई तो मैंने पूछा पूजा कहां है? वो नहीं आई। मां का जवाब था उसकी शादी कर दी। लड़का अच्छा है। पढ़ा लिखा है। पुलिस की नौकरी के लिए फार्म भरा है। इससे अच्छा लड़का नहीं मिल सकता।’’ यह कोई कहानी का हिस्सा नहीं है। बल्कि दिल्ली के एक नगर निगम स्कूल में पढ़ाने वाली शिक्षिका द्वारा बयां हकीकत है। इससे ही मिलती जुलती घटनाएं और भी हैं जिस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। उस पर तुर्रा यह कि पिछले दिनों परीक्षाओं के परिणाम घोषित हुए। लड़कियां इस बार भी लड़कों को पीछे छोड़ आगे निकल गईं। क्या समाज एवं शिक्षा का सच यही है? क्या शिक्षा वास्तव में लड़कियों को आगे लेकर जा रही है? क्या यही स्थिति उच्च शिक्षा में भी है आदि सवाल उठना लगे हैं। हकीकत तो यह है कि बच्चियांे की शादी स्कूल पूरे करते व बीच मंे भी हो जाती है। एक शिक्षिका ने बताया कि महज बारहवीं की परीक्षा के बाद उनके पिताजी का देहांत हो गया। तब भाइयों की शादी करने की बजाए रिश्तेदारों,मां ने उनकी शादी कर दी। शादी के आगे शिक्षा ठिगनी हो गई । लेकिन उन्होंने आगे की जो कहानी बताई उससे जज्बे का अंदाजा लगता है। उन्होंने बताया कि ससुराल वालों को काफी मिन्नतें कर आगे की पढ़ाई के लिए तैयार किया और समय के साथ उन्होंने एम ए और बी एड भी किया। यह एक कहानी है जो जीवन के बीच से निकल कर समाज तक का सफर करती है। लेकिन वे लड़कियां जिनकी पढ़ाई शादी की वजह से बीच में छूट गईं और दुबारा पटरी पर नहीं लौटीं उनके लिए हमारा क्या प्रयास है इसपर विचार करना चाहिए।
आंकड़े तो बताते हैं कि पिछले दस सालों से लड़कियां दसवीं और बारहवीं में अव्वल आ रही हैं। लेकिन उनमें से कितना प्रतिशत लड़कियों की संख्या उच्चा शिक्षा तक पहुंच पाती हैं। देश के विभिन्न कोनों से परीक्षाओं के निहितार्थ भी आ रहे हैं। परीक्षा के समानांतर परीक्षा और शिक्षा के  द्वंद्व भी सामने आ रहे हैं। जिन बच्चों के अंक व ग्रेड कम आए उन्होंने आत्महत्या का रास्ता अपनाया। इसमें मध्यम प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों मंे आत्महत्याओं की घटनाओं मंे बढ़ोत्तरी हुई। यहां शिक्षा परीक्षा के समाने पतली दुबली नजर आती है। वरना कोई वजह नहीं कि अंक कम आने व ग्रेड मन मुताबिक न आने पर बच्चे आत्महत्या करें। दरअसल शिक्षा के मायने में काफी तेजी से बदलाव देखे जा सकते हैं। यदि नब्बे के दशक में नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि तब अंक साठ के पार कम ही जाया करते थे। प्रथम श्रेणी में पास होने वाले बच्चों की संख्या कम होती थी। लेकिन द्वितीय श्रेणी में पास होने वाले बच्चे आत्महत्या का रास्ता नहीं अपनाते थे।
यदि 2005 के बाद परीक्षा और शिक्षा के बीच के द्वंद्व को समझने की कोशिश करें तो एक झीनी सी ही सही लेकिन एक फांक दिखाई देगी। वह है परीक्षा के प्रश्न पत्रों का स्वरूप। 2000 व 2005 के पूर्व प्रश्न पत्रों मंे बहुवैकल्पि सवालों की कमी थी। ज्यादा से ज्यादा विषयनिष्ठ सवाल हुआ करते थे। यानी लेखन कौशल को परखने पर जोर था। तब भाषा के कम से कम पढ़ने और लिखने के कौशल का विकास हो जाता था। अंक बेहश कम आते थे लेकिन उनकी अभिव्यक्ति क्षमता मजबूत होती थी। भाषायी स्तर पर बच्चों की दक्षता विकास एक लक्ष्य हुआ करता था। 2005 आते आते सीबीएससी पर दबाव पढ़ने लगा कि बच्चे परीक्षा में कम आने की वजह से आत्महत्याएं कर रहे हैं सो कोई विकल्प देखा जाए। परीक्षा की मूल प्रकृति में बदलाव लाया गया। तब माना गया था कि परीक्षा यानी मूल्यांकन के बेहतर विकल्प की तलाश की जाए। लेकिन शोधों, रिपोर्ट आदि को दरकिनार करते हुए सहज और सरल के तर्क पर प्रश्न पत्रों को बहुवैकल्पिकताके राह पर हांक दिया गया। इसी का परिणाम है कि बच्चों को भाषा के विषय में नब्बे, पंचानबे अंक तो आने लगे लेकिन भाषायी कौशलों, अभिव्यक्ति के स्तर पर पिछड़ते चले गए। एक पैराग्राफ लिखने में मुश्किलें आने लगीं। इसके पीछे हम उस जमीन को देख सकते हैं जो बहुवैकल्पिक प्रश्नों पर तैयार की गई थी।
सीबीएससी और एनसीइआरटी को तब कहा गया था कि ऐसा रास्ता निकालें तो सर्व मान्य और स्वीकार किया जा सके। विभिन्न शिक्षाविदों की दृष्टि में यह शिक्षा का वह बदलाव था जिसका असर आने वाले पंद्रह बीस सालों मंे दिखाई देंगे। वह अब दिखाई भी देने लगा है। बच्चों को निन्यानबे प्रतिशत अंक हासिल करने के बाद भी संतुष्टि नहीं है। उन्हें तथाकथित अच्छे काॅलेज में नामांकन भी नहीं मिल पाते। क्यांेकि अंकों के बाजार मंे हर कोई अपना रिजल्ट लेकर खड़ा है। को बड़ कहत छोट अपराधू।
परीक्षा जिंदगी से बड़ी नहीं होती यह मूल्य हमारे समाज और बच्चों के बीच से कूच कर चुका है। यदि ऐस बच्चों की खोज में निकलें जिन्हें परीक्षा ने नकार दिया किन्तु जीवन में उन्होंने वे काम किए जिसे नंबरदारों ने नहीं किया। यह ताकत और समझ कौन विकसित करेगा। यह मूल्य और शिक्षा के मकसद कौन पैदा करेगा। निश्चित ही अभिभावक और शिक्ष कवे घटक हैं जिन्हें कायदे से बच्चों में परीक्षा से बड़ी जिंदगी के फल्सफे को सीखाना चाहिए। यदि बच्चे परीक्षा और उसके परिणाम से डरते हैं तो इसमें उनका दोष कम हम ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि हमने शिक्षा की महत्ता और जीवन मूल्य जो परीक्षा के पैमाने पर नहीं तय होती, सीखाने की कोशिश ही नहीं की। परीक्षा और परिणाम के मध्य झूलने वाले बच्चों को संभालना और परीक्षा के विकल्प की ओर मोड़ने की तालीम भी देनी होगी। अंकों के समानांतर जीवन को कैसे प्रबंधित और जीया जाए इसकी कला भी हमें अपने बच्चों को सीखाने की आवश्यकता है।


No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...