Monday, July 13, 2015

सरकारी स्कूलों में ताले लटकने का दौर



कौशलेंद्र प्रपन्न
राज्य सरकार जिस रफ्तार और तर्कों के आधार पर सरकारी स्कूलों को बंद कर चुकी है या ताला लगाने का एलान कर चुकी है उसे देखते हुए उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में हमारे देश में सरकारी स्कूल हाशिए पर नजर आएंगी। हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने 3000 सरकारी स्कूलों को बंद करने का फरमान जारी किया है। गौरतलब है कि छत्तीसगढ से पहले राजस्थान, उडि़या, महाराष्ट आदि राज्यों में भी सरकारी स्कूलों में ताले लगाए जा चुके हैं। छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने इसे तर्कपूर्ण कार्यवाई बताया है। एजूकेशन डेवलप्मेंट इंडेक्स में इस राज्य को 28 वें स्थान पर रखा गया है। सरकार के तर्क शास्त्र पर गौर करें तो सरकार की नजर में इन स्कूलों में बच्चों की तदाद बहुत कम थी, कोई दूसरा स्कूल चल रहा है, शिक्षकों की कमी, इमारत जैसे दूसरे कारण भी गिनाए गए हैं। जिन इलाकों में सरकारी स्कूल में ताले लगे हैं वे आदिवासी बहुल इलाका माना जाता है। इनमें नारायणपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा जैसे क्षेत्र हैं जो जंगल,पहाड़ और दूसरी भौगालिक बाधाओं से घिरी हैं।
पिछले साल राजस्थान, महाराष्ट, उडि़सा, उत्तराखंड़ आदि राज्यों में भी स्कूल बंद हो चुके हैं। नेशनल कोईलिएशन फाॅर एजूकेशन की रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान में 17,129, गुजरात में 13,450, कर्नाटक में 12,000, आंध्र प्रदेश में 5,503, उडि़सा में 5000, तेलंगाना में 4000, मध्य प्रदेश में 35,00, उत्तराखंड़ में 12,000 स्कूल बंद हो चुके हैं। तुर्रा यह कि उत्तराखंड़ के जिन स्कूलों को बंद किए गए उनमें से कुछ स्कूलों के कमान एक निजी संस्था के हाथों सौंपे जाने की बात हो रही है। वह संस्था इन सरकारी स्कूलों को अपने टीचर के मार्फत शिक्षण का कार्य संपन्न कराएगी।
सरकारी स्कूलों को बंद करने के पीेछे के तर्क शास्त्र को देखें तो निराशा होती है। तर्क यह दिया जा रहा है कि हमारे पास शिक्षकों की कमी है। हमारी सरकारी स्कूलों की इमारतें माकूल नहीं हैं। स्कूलों में बच्चों की कमी है आदि। यदि इन तर्कों पर विचार करें तो पाएंगे कि इनमें से कोई भी तर्क ऐसे नहीं हैं जो सरकार की सद्इच्छा की ओर इशारा करते हों। दरअसल सरकार शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत प्रतिबद्ध तो है कि वो सभी बच्चों को अनिवार्य शिक्षा मुहैया कराए लेकिन जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि दो विरोधी स्थापनाएं चल रही हैं। उत्तराखंड़ में तो कुछ स्कूलों को बंद कर दिया गया लेकिन कुछ स्कूलों को निजी संस्थानों के हाथों सौंप कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई।
यदि किसी भी राज्य में शिक्षकों की कमी है तो आरटीई के अनुसार प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति कर इस कमी से निपटा जा सकता है। लेकिन अभी भी विभिन्न राज्यों में हजारों और लाखों की संख्या में पद रिक्त हैं। कुछ साल पहले बिहार, उत्तर प्रदेश में बीए एमए और बीएलएड आदि डिग्रीधारी प्रतिभागियों को बतौर शिक्षक नियुक्त किया गया था। अफसोस की बात है कि सीटीईटी एवं अन्य डिग्रियां फर्जी पाई गईं। फर्जी डिग्री की वजह से हाल ही में बिहार में 1400 शिक्षकों ने इस्तीफा दे दिया। भवन की हालत ठीक नहीं होने के तर्क के पीछे भी कोई खास दम नजर नहीं आता। यदि भवन कमजोर है तो उन्हें दुरुस्त किया जा सकता है। इन तर्कांे को आधार बना कर स्कूल ही बंद कर देना सीधे सीेधे राज्य सरकार की मनसा को प्रकट करता है।
स्कूलों को बंद करना व बंद होना एक तरह से उस ओर इशारा करता है कि वह दिन दूर नहीं जब केंद्र और राज्य सरकार अपनी शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी से हाथ पीछे खींच ले। जबकि शिक्षा का मौलिक अधिकार भारतीय संविधान की धारा 21 में शामिल है। वहीं शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 देश के भी 6-14 आयु वर्ग के बच्चों को बुनियादी शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है। समाज का एक बड़ा तबका सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर है। उनपर पास स्कूल चुनाव का विकल्प नहीं है। ऐसे में हमारे समाज का एक बड़ा गरीब वर्ग विकास और शिक्षा की मुख्यधारा से कट जाएगा।
कितनी विचित्र बात लगती है कि एक ओर हमारा देश डिजिटल इंडिया का सपना देख रहा है और दूसरी ओर गरीब बच्चों के पहंुच से सरकारी स्कूलों को छीना जा रहा है। सरकारी स्कूलों को सुधारने की बजाए उन्हें बंद करना व निजी हाथों में सौंपना कोई सकारात्मक विकल्प नहीं हो सकता। होना तो यह चाहिए कि सरकारी शिक्षा तंत्र यानी विद्यालय संजाल को सुदृढ किया जाए। इसके लिए विश्व बैक से हमें आर्थिक मदद भी मिलते रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि सर्वशिक्षा अभियान के तहत भारत को हर साल करोड़ों रुपए मिले हैं। भारत ने 1990 में एजूकेशन फार आॅल यानी ‘सब के लिए शिक्षा’ के दस्तावेज पर दस्खत किया था। उस दस्तवेज के अनुसार सन 2000 तक सभी बच्चों को शिक्षा मुहैया करा देना था। लेकिन ग्लोबन मोनिटरिंग रिपोर्ट के अनुसार अभी भी 80 हजार बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जीएमआर ईएफए ने 2015 के 31 मार्च तक के वैश्विक समय सीमा को बढ़ाने की मांग को स्वीकारते हुए अब 2030 तक किए जाने की बात चल रही है।
दो विरोधाभासी सपनों में हमारा देश सांस ले रहा है। एक ओर डिजिटल इंडिया के सपने आंखों में ठूसे जा रहे हैं वहीं दूसरी गरीब बच्चों से सरकारी स्कूल दूर किए जा रहे हैं। कल्पना कर सकते हैं कि उस डिजिटल इंडिया में कौन वासी हांेगे। लाखों गरीब बच्चे निश्चित ही उस विकसित समाज का हिस्स नहीं बनने वाले हैं। ठीक वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज से 3000 स्कूल छीन लिए गए। हम नहीं चाहते कि आदिवासी व अन्य बच्चे शिक्षा हासिल कर विकसित समाज में सवाल न पूछने लगंे इसलिए उनसे शिक्षा के अवसर ही छीनने की कोशिश हो रही है।

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