Friday, July 10, 2015

भाषा नीति बनाने की चिंता


भाषा की मरने की ख़बरें दुनिया के तमाम कोनों से आ रही हैं। जो भी भाषा से जुड़ा है उसे भाषा के मरने की आहट सुनाई देती होगी। लेकिन उन्हें बिल्कुल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता होगा जो महज भाषा की रोटी खाते होंगे। भाषा जिंदा रहे या मरे उन्हें हर साल विदेश भ्रमण का मौका मिलता रहे। भाषा के परिवार में हिन्दी एक सदस्या है। इसकी स्थिति को बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती। यदि हम भाषा के वृहत्तर परिवार की बात करें तो आज की तारीख में विश्व की कई भाषाएं या तो मर चुकी हैं या मरने की कगार पर खड़ी हैं। उसे बचाने की चिंता सरकारी प्रयासों पर छोड़ दिया गया है। अफसोस तो तब होता है जब हम सरकारी दस्तावेजों और आयोगों में भी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को एक ख़ास किस्म की नीति के तहत होते बर्ताव को देखते हैं। इस दृष्टि से विमर्श करें तो 1963 की राजभाषा अधिनियम भाषा के साथ होने वाले दोयम दर्जंे के व्यवहार की परते खोलती हैं। आजादी से पहले और उसके बाद भी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उपेक्षापूर्ण बर्ताव ही किया गया है। आश्चर्य हो सकता है कि आजादी के बाद कई सारे आयोग और समितियों का गठन किया गया। शिक्षा की बेहतरी के लिए भी आजादी पूर्व से लेकर आजादी के पश्चात भी आयोग और नीतियां बनाई गईं। उन आयोगों और नीतियों में भाषा के नाम पर त्रिभाषा सूत्र तो पकड़ा दिया गया लेकिन कभी भी स्वतंत्र रूप से भाषा आयोग का गठन हुआ हो इसका ध्यान नहीं आता। यह एक कैसी विचित्र बात है कि देश के समग्र विकास की डफली बजाने वालों को कभी भी भाषा आयोग व भाषा नीति बनाने की चिंता ही नहीं सताई। यदि सरकारी पहलकदमी पर नजर डालें तो हमारे पास 1963 की राजभाषा अधिनियम ही है जिसमें सच पूछा जाए तो न केवल हिन्दी के साथ बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी गंदा मजाक सा ही किया गया है। लेकिन इस सच और अतीतीय यथार्थ को हम नहीं बदल सकते। हां हम जो कर सकते हैं वह यही हो सकता है कि अभी भी हमारे पास समय है यदि हम चाहते हैं कि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को बचा लें तो उसके लिए सरकारी के साथ ही हमारी सांस्थानिक और व्यक्तिगत प्रयास भी अपेक्षित है।

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