Friday, July 3, 2015

फर्जी डिग्री वाले मास्टर जी


कौशलेंद्र प्रपन्न
‘कमला बाबू कभी टीचर नहीं बनना चाहते थे। न ही उनके खानदान में कोई टीचर हुआ। परिवार के सभी सदस्य लाल बत्ती की लालसा में बुढ़ा गए। उम्र के ढलान पर कोई बैंक पीओ की परीक्षा पास कर बैंक में लगा तो कोई रेलवे मंे नौकरी कर रहा है। कमला बाबू भी शुरू से ही मास्टर जाति से ही चिढ़ते थे। लेकिन भाग्य का खेल देखिए कि अंत में मास्टरी करनी पड़ी। उम्र निकली जा रही थी सो उनके अपने जमाने में गांव जेवार में प्रसिद्ध पिताश्री ने राय दी कि कहीं से बी.एड की डिग्री मिल जाए तो तेरा बेड़ा पार हो जाएगा। मेरा क्या है आज हैं कल चले जाएंगे। लेकिन तेरी में पूरी जिंदगी पड़ी है। ...और देखते ही देखते फस्ट डिविजन की बी एड की डिग्री कमला बाबू के हाथ में आ गई और गांधी मैदान में जाकर धक्का मुक्की कर नौकरी भी अपने गांव के पास वाले उच्च विद्यालय में पा ली।’
उक्त पंक्तियां किसी कहानी या उपन्यास की हो सकती है। रोचक भी लगेंगी जब आप इस कहानी को पढ़ेंगे। लेकिन वास्तव में यह कहानी की पंक्तियां नहीं हैं। यह जमीनी तल्ख हकीकत बयां करती सच्चाइयंा हैं। बिहार राज्य में अब 1400 स्कूली शिक्षकों ने स्वतः ही नौकरी से इस्तीफा दे दिया है। लेकिन आप चैंके नहीं। उन्होंने प्रसन्नता व स्वेच्छा से नहीं किया है। बल्कि उच्च न्यायालय का आदेशों का पालन किया है इन 1400 शिक्षकों ने। उच्च न्यायालय का आदेश आया था कि जिन भी शिक्षक के पास फर्जी डिग्री है वे स्वयं से इस्तीफा दे दें वरना पकड़े जाने पर आर्थिक दंड़ भुगतना पड़ सकता है। उच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद इस्तीफा देने वालों की संख्या और भी बढ़ सकती है। बिहार शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव आर के महाजन ने स्वीकारा है कि हमें उम्मीद है अभी और इस्तीफे होंगे। यह संख्या हजारों में हो सकती है। गौरतबल है कि बिहार में प्राथमिक शिक्षकों की संख्या तकरीबन 3.5 लाख है। उच्च न्यायालय ने आठ जुलाई तक का समय दिया है कि जिनके पास भी फर्जी डिग्री है वे स्वतः ही इस्तीफा दे दें।
याद हो कि नितीश कुमार ने 2010 में खुलेतौर पर गांधी मैदान में शिक्षकों को नियुक्ति पत्र बांटे थे जिनके पास भी बीए एम ए एव ंबी एड की डिग्री थी वे सब शिक्षक बन गए थे। सरकारी आंकड़ों के में दर्ज हो गया कि बिहार में शिक्षकों के पद भर लिए गए। क्योंकि आरटीई के अनुसार शिक्षकःछात्र अनुपात 25ः1 और 35ः1 का रखा गया है। वहीं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने के लिए पर्याप्त शिक्षकों की आवश्यकता थी। इस कमी को बिहार सरकार ने इस तरह से पूरा किया। जबकि आरटीई में यह भी प्रावधान है कि शिक्षक प्रशिक्षित होंगे। लेकिन हालिया बिहार राज्य से आ रही खबरें बताती हैं कि अधिकांश शिक्षकों के पास टीईटी के प्रमाण पत्र तक फर्जी हैं। टीईटी पास के प्रमाणपत्रों में दर्ज अंकों में भी झोल पाया गया है। माना जा रहा है कि टीईटी के प्रमाण पत्रधारियों में कई तो ऐसे हैं जिन्होंने दो दो जिलों से हासिल किए हैं। खबर के अनुसार पटना प्रमंडल में 75 से 76 नियोजित शिक्षकों के टीईटी प्रमाण पत्र कई जिलों से मिले हैं। पचीस से तीस टीईटी प्रमाण पत्र के सीरियल नंबर में काफी अंतर पाया गया है।
गौरतलब हो कि जम्मू के उच्च न्यायालय में न्यायाधीश ने एक शिक्षक को गाय पर लेख लिखने को कहा था लेकिन शिक्षक जब नहीं लिख पाया तब न्यायाधीश ने आदेश दिया था कि इस तरह की शिक्षा की मिठाई की दुकानें बंद होनी चाहिए। कुछ कुछ ऐसा ही मंजर बिहार की इस घटना में दिखाई देती है। बल्कि न केवल बिहार,उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों में भी कड़ाई की जाए तो हकीकत सामने आने मंे देरी नहीं लगेगी। इस तथ्य से कोई कैसे इंकार कर सकता है कि यदि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे सामान्य हिन्दी के वाक्य, शब्द, एवं गणित में सक्षम नहीं हो रहे हैं तो इसके पीछे कहीं न कहीं शिक्षक भी शक के घेरे में आता है। यह कहना सरलीकरण नहीं होगा कि आज शिक्षण पेशे में वही लोग आते हैं जिनके लिए बाकी सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। पहली इच्छा व चुनाव बहुत कम शिक्षकों का होता है।
एक मौजू सवाल यह उठता है कि जब शिक्षण कर्म ने आपको नहीं चुना। आपने जब अंत में ही सही यदि शिक्षण को पेशे के तौर पर चुन लिया तो इस कर्म और पेशे का धर्म तो निभाना बनता है। जब शिक्षक खुद धोखाधड़ी से डिग्रियां हासिल कर जीवन में कम से कम शिक्षक बन रहा है वह बच्चों को किस तरह के मूल्य और आदर्श का पाठ पढ़ा पाएगा। कहते हैं बच्चे सबसे ज्यादा अपने शिक्षक/शिक्षिकाओं का अपना आदर्श ही नहीं मानते बल्कि अपने शिक्षक के करीब भी होते हैं। जब बच्चों को मालूम चलेगा कि उनके शिक्षक के पास फर्जी डिग्री थी और उन्होंने इसलिए नौकरी छोड़ दी तो बच्चों और समाज में किस तरह की छवि और संदेश जाएगा। हालांकि फर्जीवाड़ा न केवल शिक्षक कर रहे हैं बल्कि अन्य नौकरियों में भी फर्जी डिग्री की अनुगंूज सुनाई देती रहती है। यानी समस्या का जड़ कहीं और है। उस जड़ को समाप्त करने की बजाए तने और पत्तियों को काटने छांटने से समस्या का हल तात्कालिक तो हो सकता है स्थाई नहीं।
अध्यापक भी इसी समाज का हिस्सा है। इस नाते उसमें भी सामाजिक चालाकियां, धूर्तता आदि आनी स्वभाविक है। जब हमने बीएलएड, बी एड किए हुए शिक्षकों की योग्यता पर सवाल खड़ा किया और उन्हें एक नए किस्म की छलनी से छानने की बात पूरे देश में मानव संसाधन मंत्रालय ने शुरू किया तब तमाम नागर समाज मौन साध कर बैठ गए। सबने शामिल बजा बजाया कि हां हां सही है ठीक है मास्टर हमारे नालायक हैं। उन्हें कुछ नहीं आता। इनको एक और परीक्षा से गुजारा जाए। जो पास हुआ वो पार हुआ। जो पास नहीं हुआ उसने जुगाड़ लगाया। जबकि एक बार संदेह करने से पहले शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों की चाल-ढाल पर भी नजर डालना लाजमी था कि क्या इन पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण कोर्स में इस लायक बनाया जाता है कि वो कक्षा-कक्ष में पढ़ा सकें। क्या उन्हें स्वयं गुणवत्तापूर्ण शिक्षण-प्रशिक्षण मिल पाए जिसकी उम्मीद नागर समाज करती है। यह एक प्रश्न यह भी उठता है कि जिस गैर जिम्मेदाराना तरीके से बी एड की डिग्रियां चबेने की तरह बांटी गईं व बांटी जा रही हैं ऐसे में हम कितनी गंभीरता की उम्मीउद कर सकते हैं। क्या यह किसी से छूपी बात है कि इसी समाज में साठ से अस्सी हजार में बी एड में नामांकन से लेकर बिना क्लास में पढ़ाए सीधे परीक्षा में बैठने की प्रक्रिया पूरी कर ली जाती है। उन्हें सत्तर और अस्सी प्रतिशत अंक भी आ जाते हैं लेकिन जब वे कक्षा में जाते हैं तब उनके वे अंक साथ नहीं देते। साथ देती है तो सिर्फ उनकी समझ और पूर्व ज्ञान जो कभी उन्होंने पढ़ा और गुना हो तो।


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