Thursday, April 9, 2015

उनके देवता


मुर्दहिया पढ़ते वक्त देवताओं और देवालयों का विभाजित समाज आंखों के आगे नाचने लगता है। उनके देवता और हमारे देवता के वर्गीकरण को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि समाज के शक्तिशाली और सत्ताधीशों के देवता और देवालयों के चरित्र स्पष्ट होते हैं। डाॅ तुलसी राम ने चमरिया माई और डीह बाबा का जिक्र करते हैं। चमरियां माई और डीह बाबा निम्न और दलित जाति के लोगों के देवता हैं। उनके देवता और देवालय गांव से बाहर मुर्दहिया के पास निरा वीराने मंे है। उनपर चढ़ने वाले प्रसाद और भक्तजन भी अगड़े लोगों से कई मायने में अलग हैं। जहां चमरिया माई और डीह बाबा पर शराब, डांगरों के मांस आदि चढ़ाएं जाते हैं वहीं अगड़ों के यहां इन चीजों को अछूत माना गया है। मुर्दहिया एक उदाहरण भर है जिसमें उनके देवता और देवालयों के चरित्र और सामाजिक बुनिवाट की बानगी मिलती है। यदि देश के अन्य दलित देवताओं और देवालयों की ओर नजर डालें तो वर्ग चरित्र और उनके और अगड़ों के देवताओं के खान-पान, वेश भूषा आदि में काफी अंतर देखने को मिलेगा।
सन् 2008 के अगस्त माह में एक बिजनेस अखबार ने एक खबर लगाई थी कि देश के सबसे अमीर और धनाढ्य मंदिर कौन से हैं। उन मंदिरों में रोज दिन कितने चढ़ावे चढ़ा करती हैं। रिपोर्ट के अनुसार एक दिन में 80 लाख से लेकर एक करोड़ तक के जेवर, सोना, चांदी और नकद आदि शिरिडिह के साई मंदिर पहले स्थान पर था और दूसरे नंबर पर मुंबई के सिद्धी विनायक मंदिर था। देश के इन दो मंदिरों में जितने चढ़ावे और कमाई होती है उस अनुपात में उनके देवताओं और देवालयों की गिनती कहीं भी भी नहीं होती। समय समय पर मंदिरों में चढ़ाने वाले चढ़ावे और उनकी कमाई को लेकर खबरें आती रही हैं लेकिन उनके देवताओं की खोज खबर तक नहीं ली जाती। यह जानना बड़ा ही दिलचस्प और आंख खोलने वाला हो सकता है कि देश भर में उनके देवताओं पर कितने चढ़ावे चढ़ते हैं और उनके देवता कितने महंगे वस्त्राभूषण पहनते हैं। हिन्दु देवी देवताओं के घर हर गली मुहल्ले में हैं। उनके आभूषण, वस्त्रसज्जा, चढ़ावे पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि एक दिन कम से कम इनती कमाई तो मंदिर के मालिक एवं पुजारी की हो जाती है कि जिससे अपने घर परिवार को अच्छे तरीके से चला पाते हैं। लेकिन गौरतलब यह भी है कि अमूमन मंदिरों में पुजारी भी ठेके पर रखे जाते हैं। मंदिर के प्रबंधक एवं मालिक मासिक वेतन पर काम करने वाले पंडि़त जी के साथ ठीक वैसे ही बर्ताव करते हैं जैसे अन्य कर्मचारियों के साथ मालिक व्यवहार करता है। यदि चढ़ावे, दान आदि से कुछ भी छुपा लेते हैं तब उनपर अनुशासनात्मक कार्यवाई की जाती है। मंदिर से तो निकाला ही जाता है साथ ही उनकी मार कुटाई भी होती है।
भारतीय मिथ शास्त्र पर नजर डालें तो पाएंगे कि अगड़ों और उनके देवताओं के भक्त भी अलग अलग हुआ करते थे। मंदिर में देवी देवताओं के पत्थर, वस्त्र, पहनावे सब के सब एक खास वर्ग की छवि पैदा करती है। यदि दिल्ली में ही मंदिरों के व्यापार व कहें व्यवसाय को देखें तो आंखें फटी की फटी रह जाएंगी। क्षमा चाहता हूं मैं मंदिर और इससे जुड़े तमाम ताम -झाम को व्यवसाय व व्यापार कह रहा हूं लेकिन यही सच है कि जो लोग मंदिरों को व्यापारी हैं उनके लिए धर्म व आस्था नाम की कोर्ठ चीज नहीं होती। उनकी नजरों में यदि कुछ होता है तो वह है मुनाफा। क्योंकि जिस तरह से दुकानों, मालों, व मंडियों में बोली लगा करती है उसी तरह मंदिरों की भी बोली लगा करती हैं। हरिद्वार के हरकी पौड़ी पर तमाम मंदिरों की एक साल की बोली लगती है। वहां मंदिर मालिकों से बात हुई तो बताया कि एक साल की कीमत 5 करोड़ है। हमें यह पैसे भक्तों से ही तो निकालने हैं। यही वजह है कि वहां पर हर मंदिर खुद को प्राचीन, अत्यंत प्राचीन गंगा मां का मंदिर होने के दावे किया करते हैं। लेकिन ध्यान हो कि 1990 के आस पास वहां सिर्फ तीन ही मंदिर हुआ करते थे। जो अब बढ़कर पांच से भी ज्यादा हो चुके हैं।
उनके डीह बाबा, चमरिया माई और उनके भक्तों में वह शक्ति शायद नहीं है कि जो आम चलते रास्ते, चैराहों आदि पर रातों रात मंदिर पैदा कर लें। उसके लिए काफी समीकरण बैठाने पड़ते हैं। हर शहर और गांवों में किस तरह और किनके द्वारा मंदिर रातों रात बन जाते हैं उनमें कितने मंदिर उनके होते हैं और कितने अगड़ों के यह जानना भी रोचक हो सकता है। उनके देवता टूटी ढहती हुई दीवारों और छत के नीचे रहा करते हैं वहीं दूसरे देवता चमचमाती रोशनी में नहाती दीवारों और छत के नीचे विश्राम किया करते हैं। एक ओर जहां दूध के जलढार करते भक्त जन हुआ करते हैं वहीं दूसरी ओर कुत्ते जहां पनढार किया करते हैं या देसी शराब चढ़ाए जाते हैं। गोरू डांगर, ताश पत्ती खेलने वालों के अड्डे उनके देवालयों होते हैं वही दूसरों के देवालयों में छप्पन भोग लगा करता है।

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