Tuesday, April 7, 2015

स्कूली शैक्षिक गुणवत्ता का दारोमदार




शिक्षा में गुणवत्ता की प्रकृति और सवाल को ठहर कर विचार करने की आवश्यकता है। गोया होता यूं है कि आनन फानन में हम शिक्षा और गुणवत्ता जैसे अहम सवालों को बड़ी ही जल्दबाजी में देखते और निर्णायक फरमान जारी कर देते हैं। जबकि यह मुद्दा जितना देखने में सहज और सरल लगता है वह दरअसल इतना भी एक रेखीए नहीं है। शिक्षा अपने आप में काफी गहन और विमर्शकारी है। पहली बात तो यही कि हमारा आज का समाज इस शिक्षा से क्या हासिल करना चाहता है। हमारी खुद की शिक्षा से क्या उम्मीदें हैं? जब तक इन्हें स्पष्ट नहीं कर लेते तब तक शिक्षा में गुणवत्ता जैसे खासे अहम सवाल को ऐसे ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से व्याख्यायित करते रहेंगे और इसका ठिकरा सीधे सीधे शिक्षकों के मत्थे फोड़ते रहेंगे। जबकि ठहर कर विमर्श करें तो पाएंगे कि शिक्षक तो महज एक सिर है जिसका सिर बहुत आसानी से कूंचा जा सकता है। उसके बचाव में खड़े होने वाले बहुत कम लोग होंगे। शिक्षक संगठनों की अपनी चिंताएं होती हैं। जिसमें शिक्षक के मुद्दे महज नारों के लिए काम आते हैं। गौरतलब है कि नारे पूरे साल एक स्वर में नहीं लगाए जा सकते। उसके भी एक खास मौसम और वक्त हुआ करता है।
शिक्षा में गुणवत्ता का प्रश्न बार बार कई रूपों में उठते रहे हैं। सरकार से लेकर नागर समाज भी खासे गंभीर से लगते हैं। सरकार भी हर साल रस्म अदायगी की तरह अपनी रिपोर्ट जारी कर देती है कि फलां फलां कक्षा में बच्चों के दाखिले में बढ़ोत्तरी हुई। अमुक राज्यों में शौचालय, पीने का पानी, शिक्षकों के खाली पदों आदि से राहत मिल गई। आरटीई के पूरे ना सही कुछ ढ़ांचागत सुविधाएं स्कूलों में उपलब्ध करा दी गई हैं आदि। यहां सवाल उठता है कि क्या शिक्षा में महज चंदेक ढ़ांचागत सुविधाएं मुहैया करा देने से ही शिक्षा में गुणवत्ता का मसला हल हो जाता है। क्या गुणवत्ता का सरोकार सिर्फ शौचालय, पीने के पानी की सुविधाएं उपलब्ध करा देने से है? या कि शिक्षा के क्षेत्र में जब हम गुणवत्ता की बात करते हैं तो उसका अर्थ और व्यापक हो जाता है। इस पर हमें विचार करने की आवश्यकता है।
हाल ही में जारी मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट और नूपा की फ्लैस डैटा पर नजर डालें तो पाएंगे कि 2013 में जहां 81 लाख बच्चे स्कूल से बाहर थे 2014 में यह संख्या घट कर 60 लाख हो चुकी है। उसमें भी लड़कियों की संख्या में बढ़ोत्तरी देखी गई है। गौरतलब हो कि यह संख्या 2014-15 में भी अस्सी लाख बताए गए थे। संख्याओं से जिस तरह सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं खेलती हैं उसपर गौर करें तो पाएंगे कि इनकी चिंता महज संख्याओं में गिरावट दिखाना है। शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता की क्या स्थिति है उससे ज्यादा साबका नहीं है। क्योंकि आंकड़ों का पहाड़ जितना खड़ा और गिराया जाता रहा है उसे देखकर एक छवि तो स्पष्ट हो जाती है कि हमारी ंिचंता आंकड़ों को दुरूस्त करना है न कि हकीकत को ठीक करना। इसी साल जनवरी में यूनिसेफ और यूनेस्को की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी उस रिपोर्ट के अनुसार भारत में महज 14 लाख बच्चे ही स्कूल से बाहर रह गए थे। यह आंकड़ों का खेल कैसा है? क्या यह समझना बहुत कठिन है कि एक ओर भारत सरकार 60 लाख बच्चों को स्कूल से बाहर बताती है वहीं दूसरी संस्थाएं 14 लाख किस आधार पर दावे करती हैं? आखिर सच क्या है इसे जानने के लिए विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं की रिपोर्ट भी हमारी मदद करती हैं। मसलन असर, प्रथम, आरटीई फोरम या फिर नेशनल कोईलिएशन फार एजूकेशन आदि। इन संस्थानों की रिपोर्ट की बात करें तो अभी भी देश के तकरीबन 60 लाख बच्चे स्कूले से बाहर हैं। वहीं सरकारी दस्तावेजों की मानें तो यह संख्या 14 लाख है।
इन संख्याओं और और आंकड़ों के पहाड़ पर चढ़कर हकीकत नहीं जान सकते। हमें कुछ बुनियादी तथ्यों पर गौर करना होगा। क्या बच्चे कक्षा में अपनी उम्र और कक्षायी स्तर के अनुसार भाषा, गणित, विज्ञान आदि विषयों में दक्षता हासिल कर पा रहे हैं या नहीं। क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 हरेक उन बच्चों को जो 6 से 14 आयु वर्ग के हैं, को बुनियादी शिक्षा का संवैधानिक अधिकार प्रदान करता है। लेकिन यह कौन सुनिश्चित करेगा कि जो शिक्षा मिल रही है वह किस स्तर और गुणवत्ता वाली है। इस ओर यदि नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि स्कूल की शैक्षिक गुणवत्ता का दारोमदार सिर्फ शिक्षक के कंधे पर ही नहीं होता बल्कि हमें इसके लिए शिक्षक से हट कर उन संस्थानों की ओर भी देखना होगा जहां शिक्षकों को शिक्षण-प्रशिक्षण की तालीम दी जाती है। डाईट, एससीइआरटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थानों में चलने वाली सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर भी विमर्श करने की आवश्यकता है। अमूमन शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों में जिस किस्म की प्रतिबद्धता और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चल रही है उसे भी दुरुस्त करने की आवश्यकता है। एक किस्म से इन संस्थानों में अकादमिक तालीम तो दी जाती है। लेकिन उन ज्ञान के संक्रमण की प्रक्रिया को कैसे रूचिकर बनाया जाए इस ओर भी गंभीरता से योजना बनाने और अमल में लाने की आवश्यकता है।
विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से कराए गए सर्वे की रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि उनका आकलन का औजार बच्चों में यह जांचना था कि बच्चा शब्दों को पढ़ पाता है या नहीं। उनका ध्यान इस बात पर था कि बच्चा लिख पाता है या नहीं? आकलन के चेक लिस्ट में शामिल यह होना चाहिए था कि बच्चा ध्वनियों को सुनकर पहचान और अंतर कर पाता है या नहीं। बच्चा चित्रों को देखकर उस पर कुछ वाक्य बोल पाता है या नहीं। आकलन के पैमाने पर हमारे सरकारी स्कूलों के बच्चे फिसलते हुए दिखाए गए। यह तो होना ही था क्योंकि इन बच्चों को जिन अध्यापकों से भाषा की तालीम मिलती है वो भी ऐसे ही स्कूलों से निकल कर आए हैं जहां भाषायी कौशल में वर्णों को पढ़ना और उन्हें लिखने के कौशल तक महदूद रखा गया।
यदि बच्चों में भाषा दक्षता की बात करते हैं तो सबसे पहले खुद में यह स्पष्ट होना चाहिए कि वर्णों की पहचान क्या पढ़ना है? या वर्णों को बोल लेना पढ़ना है? यदि गहराई से सोचें तो शायद हम इसे पढ़ना नहीं मानेंगे। यह वर्णों की पहचान व आकृतियों को देखने की आदत तो हो सकती है, लेकिन पढ़ने एवं समझने की श्रेणी में नहीं गिन सकते। अफसोस की बात है कि जब हम बच्चों की भाषायी समझ का आकलन करते हैं तब हमारा ध्यान इन्हीं कौशलों पर होता है। बच्चे किन किन शब्दों को ठीक से बोल, लिख और पढ़ लेते हैं। किन शब्दों को लिखने बोलने और पढ़ने में गलतियां कीं आदि आकलन के मुख्य बिंदु होते हैं। जबकि भाषा के कौशल व भाषायी समझ कहती है कि बच्चे की भाषायी दक्षता की परीक्षा कुछ वर्णों को रट कर सुना देने व पढ़ देने से नहीं की जा सकती। भाषा शिक्षण में बुनियादी खामियों पर नजर डालें तो यह समझना आसान हो जाएगा कि बच्चे क्यों नहीं पढ़ पाते? बच्चे इसलिए नहीं पढ़ पाते, क्योंकि उन्हें हम सबसे पहले लिखने और पढ़ने पर ज्यादा जोर देते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि पहले ध्वनियों को सुनने की आदत उनमें विकसित करें। जब बच्चे ध्वनियों को सुनने में सक्षम हो जाएंगे तब वो उन ध्वनियों की नकल करना शुरू करेंगे और फिर बोलना शुरू करते हैं। लेकिन हमारी कोशिश और जोर लिखने पर ज्यादा होती है। इसलिए बच्चे सुनने से पहले लिखने के चक्कर में बाकी के भाषायी कौशल में पिछड़ते चले जाते हैं।
पढ़ना और समझना दोनों ही दो अलग अलग कौशल और अभ्यास की मांग करते हैं। बच्चों में पढ़ने के कौशल विकसित करने के लिए नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2005 बड़ी शिद्दत से रूपरेखा प्रस्तुत करती है। इसी के आधार पर रिमझिम किताब को तैयार किया गया। इसमें भाषा शिक्षण के तौर तरीकों पर तो काम किया ही गया है साथ ही भाषा शिक्षण को प्राथमिक स्तर पर कैसे रोचक और आनंदपूर्ण बनाया जाए इस पर भी जोर देता है। यदि रिमझिम किताब को देखें तो इसमें भाषा की कक्षा को रोचक और प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न कक्षायी गतिविधियों को शामिल किया गया। इन गतिविधियों के मार्फत शिक्षक बच्चों को बड़ी सहजता से आनंद पूर्वक भाषा शिक्षण कर सकता है। बच्चों को भी उन गतिविधियों में मजा आएगा और भाषा के विभिन्न कौशलों को हासिल भी कर सकेंगे। बच्चों में लिखे हुए शब्द और वाक्यों को पढ़ने और समझने के कौशलों को बढ़ाने के लिए जिन गतिविधियों को शामिल किया गया है यदि उनका इस्तेमाल कक्षा में किया जाए तो परिणाम सकारात्मक निकल कर आएंगे। फिर यह शिकायत जाती रहेगी कि बच्चे को पढ़ना-लिखना नहीं आता।
गौरतलब है कि शैक्षिक गुणवत्ता के दावेदारों से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्होंने पाठ्यचर्याओं और पाठ्यपुस्तकों के वाचक की भूमिका से शिक्षकों को मुक्त कर देख सकने की कोशिश की है? क्या उनकी समझ में कक्षा में मौजूद बच्चों को वर्णों की पहचान करा देने भर की जिम्मेदारी है या फिर शिक्षक एक जीवन भर साथ चलने वाली वह छवि है जिससे कभी कभार हमें रोशनी मिलती है।

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