Thursday, April 2, 2015

भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाएं



भारतीय अर्थव्यवस्था में हम महिलाओं की उपस्थिति व योगादान पर गंभीरता से विमर्श करते हैं तो स्थितियां बहुत साफ और सकारात्मक नजर नहीं आतीं। क्योंकि हमारे पितृसतात्मक समाज में स्त्रियों को शिक्षा, ज्ञान और वर्चस्व में जगह देने की प्राथमिकता हाशिए पर रही हैं। यदि भारतीय इतिहास को इस दृष्टि से देखेें तो एक दो महिलाएं ही ध्यान में आती हैं जिन्हें शिक्षा और वेद- वेदांग पठन-पाठन में देख सकते हैैं। वहीं रामायण कालीन स्त्रियों की स्थिति पर नजर डालें तो पाएंगे कि उसी समाज में एक ओर महिलाएं अपभ्रंश और अन्य क्षेत्रिय भाषाओं का इस्तमाल करती थीं वहीं राजदरबार में पुरुष संस्कृत बोला करते थे। इससे भी एक छवि स्पष्ट होती है कि महिलाओं को हमने भाषा, राज-समाज और अर्थ में कितना और किस स्तर पर रखते थे। उत्तररामचरित संस्कृत की कृति में इसकी झलकियां खूब मिलती हैं।
भारत के अर्थव्यवस्था में महिलाओं को किस तरह से जोड़ने का प्रयास आजादी के बाद हुआ है इसपर नजर डालने की आवश्यकता है। हमने आज तक राज-सत्ता में महिलाओं को विभिन्न पदों पर तो स्थापित किया है लेकिन अर्थव्यवस्था यानी की वित्त-मंत्रालय अभी भी महिला मंत्री से वंचित रहा है। विदेश-मंत्रालाय, शिक्षा मंत्रालय एवं अन्य विभागों में तो महिलाओं को हमने मुख्यधारा में शामिल किया है लेकिन अफसोस की बात है कि हमने कभी इस अहम मंत्रालय में महिला को स्थान नहीं दिया।
जहां तक महिलाओं की अर्थ-जगत में उपस्थिति का मुद्दा है हमने अंतरराष्टीय फलक पर भी देखा है कि महिलाओं के श्रम को कमतर आंका गया है। माना जाता है कि महिलाओं को गृह कार्य बिन पेड कार्य र्है। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के दिन के 8 से 9 घंटे से भी ज्यादा घर के कामों को गंभीरता से नहीं लिया जाता और न ही उनके इस कार्य की कहीं संज्ञान में ही ली जाती है।
विभिन्न क्षेत्रों और पदों पर आज महिलाएं कार्यरत हैं। वे प्रकारांतर से अर्थव्यवस्था में विकास को लेकर अपना योगदान दे रही हैं। वे चाहे बैंक सेक्टर में हो या आॅटो मोबाइल क्षेत्र में, शिक्षा का क्षेत्र हो या फिर लघु उद्योग हर क्षेत्र में आज महिलाएं अपनी क्षमता और कौशल के जरिए भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत ही कर रही हैं। लेकिन उनके इस योगदान को वह तवज्जो नहीं मिलता जो एक पुरुष को मिलता है। यहां हम लिंगाधारित भेदभाव और भारतीय संविधान की मौलिक अधिकार एवं 19 ए की स्थापनाओं को छिन्न-भिन्न करते हैं।
सच पूछा जाए तो भारतीस जनमानस को इस तथ्य को स्वीकारने में ही बड़ी समस्या रही है कि महिलाएं ज्ञान-विज्ञान और अर्थ के क्षेत्र में कुशल घटक भी हो सकती हैं। सबसे पहले हमारे समाज को इस तरह की पूर्वग्रहों से उबरना होगा। तभी हम समाज में समतामूलक और सभी के लिए विकास के समान अवसर मुहैया करा सकते हैं। वरना यह अन्य मूल्यपरक स्थापनाओं और मान्यताओं की तरह ही महज आदर्श वचन और राम राज्य की अवधारणा बन कर रह जाएगी। स्त्रियां आज जहां हैं वहां से कुछ दूर तो जा सकती हैं, अपना देह तो तोड़ सकती हैं लेकिन फिर भी उनके काम और योगदान को मुकम्मल पहचान और मान्यता नहीं मिल पाएगी।

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