Tuesday, September 9, 2014

स्कूल में शौचालय


स्कूल में शौचालय


ाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के सभी सरकारी स्कूलों में जुलाई 2015 तक लड़कियों के लिए अलग से शौचालय का निर्माण कराने का निर्णय लिया है। गौरतलब है कि अभी देश के 20 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से कोई शौचलय नहीं है। वर्ष 2012-13 में देश के 69 फीसदी और 2013-14 में तकरीबन 80 फीसदी स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था थी। जबकि 2009-10 में 59 फीसदी थी। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 स्कूल के बुनियादी ढांचे में जिन दस चीजों को शामिल किया है उनमें शौचालय, पीने का पानी,खेल का मैदान आदि हैं। कई गैर सरकारी और सरकारी रिपोर्टों जिनमें डाइस की फ्लैश रिपोर्ट भी शामिल है, पर नजर डालें तो पाते हैं कि अधिकांश राज्यों में सरकारी स्कूलों में शौचालय, पीना पानी, खेलने के मैदान आदि नहीं हैं। गांव और कस्बों में चलने वाले स्कूलों में शौचालय नहीं होने की वजह से बच्चियां स्कूल नहीं जा पातीं। एमएचआरडी की रिपोर्ट की मानें तो बच्चियों का बीच में स्कूल छोड़ जाने के पीछे एक बड़ा कारण स्कूल में लड़कियों के लिए शौचालय का न होना है।
मानव संसाधन मंत्रालय ने शौचालय बनाने का जिम्मा काॅपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी यानी सीएसआर को सौंपा है। इसके तहत स्कूलों में शौचालय का निर्माण किया जाएगा। आज देश के अधिकांश स्कूलों में या तो शौचालय हैं ही नहीं। और यदि हैं तो वो इस्तमाल में नहीं हैं। राजस्थान, बिहार, पंजाब, उत्त्तर प्रदेश आदि राज्यों के गांवों में चलने वाले स्कूलों में देखें तो वहां टीन से ढक कर शौचालय का रूप तो दिया है, लेकिन उसके दरवाजे पर पुराना जंग लगा ताला मिलेगा। उसमें न पानी है और न बैठने की व्यवस्था। ऐसे में बच्चों को खेत या खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। लड़कों के लिए थोड़ी सुविधा हो सकती है, लेकिन लड़कियों के लिए यह महफुज नहीं माना जा सकता। पंजाब एवं राजस्थान में माता पिता अपनी बच्चियों को इसलिए स्कूल नहीं भेजते क्योंकि स्कूल में लड़कियों के लिए अगल से शौचालय नहीं है।
निजी स्कूलों को छोड़ दें तो सरकारी स्कूलों की स्थिति अमूमन एक सी है। जबकि आरटीई एक्ट 2009 में स्पष्ट लिखा हुआ है कि स्कूल में कम से कम दस बुनियादी सुविधाएं होनी ही चाहिए जिसमें कक्षा-कक्ष, चाहरदीवारी, पीना का पानी, शौचालय, भाषा शिक्षक, शिक्षक के लिए कक्ष आदि। लेकिन जब इन बिंदुओं पर नजर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि अधिकांश स्कूल इस पैमाने पर खरे नहीं उतरते।
आरटीई के लक्ष्यों को पाने का अंतिम समय सीमा भी खत्म हो चुका है। वहीं सबके लिए शिक्षा यानी इएफए का लक्ष्य सीमा भी 2015 में खत्म होने वाला है। लेकिन जब हम वस्तुस्थिति का जायजा लेते हैं तो हमें हमारी दूरी नजर आती है। इसमें कमी कहां रह गई इसकी जांच करनी पड़ेगी और यह देखना होगा कि जिन वायदों और घोषणाओं को हमने अंतरराष्टीय स्तर पर किया था उन्हें पाने के लिए हमें किन रणनीतियों को अपनाना चाहिए। क्या जिन रास्तों को हमने अब तक मकूल समझा था वह पर्याप्त हैं या उनमें रद्दो बदल करने की जरूरत है। हमने सर्व शिक्षा अभियान, राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान, शिक्षा का अधिकार अधिनियम आदि तो चलाए किन्तु हमसे कहां चूक हो गई कि करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजुद भी हमारे तकरीबन 80 लाख बच्चे/बच्चियां स्कूली तालीम से महरूम हैं। हमें गंभीरता से सोचना होगा कि हम आने वाले भविष्य को किस प्रकार की तालीम दे रहे हैं और ऐसी बुनियाद पर कैसी इमारत बनेगी।
देश की सरकारी स्कूलों में बुनियादी जरूरतों का बेहद टोटा है। टीचर हैं तो कक्षा नहीं। कक्षा है तो बच्चे उससे भी कहीं ज्यादा हैं। अभी भी देश भर में 5 लाख से भी ज्यादा प्रशिक्षित शिक्षकों के पद रिक्त हैं। अध्यापकों की कमी को दूर करने का जो तरीका अनुंबध पर रखने का अपनाया गया वह आरटीई के अनुसार उचित नहीं है। क्योंकि आरटीई कहती है कि अप्रशिक्षित शिक्षकों को तीन माह के भीतर प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होगा। लेकिन दिल्ली, बिहार, उत्त्र प्रदेश आदि राज्यों में अनुबंधित शिक्षकों की भर्ती पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। उनको प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी कौन वहन करेगा यह हकीकतन दिखाई नहीं देता। बच्चों को बैठने के लिए समुचित व्यवस्था नहंीं है। एक एक शिक्षक को 100 से भी ज्यादा बच्चों को कक्षा में पढ़ाना ही नहीं पड़ता बल्कि उनकी देखभाल भी करनी पड़ती है। एक शिक्षक चाह कर भी शिक्षण नहीं कर पाता। कई ऐसे शिक्षक/शिक्षिकाएं हैं जिन्हें पढ़ाना अच्छा लगता है। वे पढ़ाना भी चाहते हैं लेकिन वे मजबूरन पढ़ा नहीं पाते जिसका उन्हें कहीं न कहीं मलाल है। क्या हम यह कह सकते हैं कि अभी भी हमारे समाज में ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो सचमुच पढ़ाना चाहते हैं लेकिन व्यवस्थागत और प्रबंधकीय कार्यों की वजह से अपने कार्य से वंचित हो जाते हैं।
यह अलग बात है कि आज हजारों स्कूल शिक्षकों की कमी के शिकार हैं। जहां दो तीन या छह शिक्षक हैं जो पूरे स्कूल को संभाल रहे हैं। शिक्षण से लेकर प्रशासकीय तमाम कार्यांे को अंजाम दे रहे हैं। लेकिन उनके इस कार्य भार को कोई भी नहीं सराहता। बल्कि उल्टे उनकी अक्षमता को ही उजागर किया जाता है। सिर्फ लानत मलानते ही दी जाती हैं। ऐसे में शिक्षक को प्रेरित करने वाला कौन होगा। कौन होगा जो जिनके कामों को पहचान सके। समाज में हर तरफ इनकी आलोचना और उपेक्षा ही होती है कि शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते। इन्हें मुफ्त में आधे दिन की नौकरी करनी होती है आदि। जबकि गंभीरता से देखें तो इनकी जिम्मेदारी कहीं ज्यादा गंभीर और जिम्मेदारी वाली होती है। जरा कल्पना करें यदि एक बच्चा गलत तालीम पाता है तो वह समाज के लिए कितना बड़ा खतरा साबित हो सकता है। हर बच्चा शिक्षक की नजर में समान होता है।
सरकारी स्तर पर स्कूलों को सुधारने और बेहतर शिक्षा हर बच्चे को मिले इसके लिए प्रयास होते रहे हैं। लेकिन अब आवश्यकता और समय आ चुका है कि समाज के अन्य वर्गों को भी स्कूल की स्थिति सुधारने के लिए हिस्सेदार बनाना होगा। सरकार की अपनी कुछ सीमाएं और वह उसी सीम में रहते हुए कार्य करती है। सरकार नियम और बजट तो दे सकती लेकिन व्यक्ति में कार्य के प्रति समर्पण और निष्ठा पैदा नहीं कर सकती। स्कूल में कार्य सुचारू चल रहे हैं या नहीं इसकी निगरानी प्रशासनिक स्तर पर तो होता ही है यदि स्थानीय निकायों को भी इसमें शामिल किया जाए तो शिक्षकों की गैर शैक्षणिक  कार्यों से निजात दिलाई जा सकती है।


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