Friday, September 5, 2014

नदी और हम




दी हमारे आने से पहले थी और यही सच है कि हमारे जाने के बाद भी यूं ही अनवरत बहती रहेगी। धार में न तो कोई मंथरपन आएगा और न ही ठहराव। बल्कि सदियों सदियों तलक बिना आंसू बहाए हमारी जीवनधार बहती ही रहेगी। कभी देखें इन्हें रूक कर अपने रफ्तार भरी जिंदगी से तो ये कितनी शंात धीर-गंभीर लगती हैं। दरअसल इनकी शांति दिखाई नहीं देती। हमें तो इनके कलकल हर हर की आवाज में भी एक संगीत सुनाई देती है। व्यास है यह। कहते हैं बहुत चंचला प्रकृति की है व्यास। जैसा उपर से है वैसे ही नीचे से। गहराई है तो उछलापन भी है। तेज प्रवाह है तो कहीं एकदम चुपके से दबे पांव चलने वाली व्यास भी मिलती है। हिमाचल की तलछट्टियों में लोटने वाली व्यास अपने साथ हिमालय को भी लेकर चलती है।
बिलासपुर से कुछ पहले ही व्यास संग संग चलने लगती है। जैसे जैसे घूमावदार पहाड़ी चढ़ते जाते हैं वैसे वैसे व्यास नीचे और नीचे बहती है। लुका छिपी करती व्यास काफी दूर तक साथ होती है। लेकिन कब यह खुद को छुपा ले यह पता ही नहीं चलता। कई बार नदियों को देखकर लगता है ये कितनी सौभाग्यशाली हैं कि इन्हीं के सामने हमारे पुरखे आए नहाए और अंत में इन्हीं में समा गए। कितने कितनों की जिंदगी को खुद मंे समो कर भी व्यथित नहीं होती। कहीं कोई तड़प नहीं होती। लेकिन वहीं जब झेलम चनाब या घाघर,बुढ़ी गंड़क, कोसी को देखते हैं तो महसूस होता है कि नदी भी कितनी बेचैन है। यह भी कितनी परेशां होती है अकेले में। रात भी निरा शांत सो जाती है।
नदियां हमारी धरती की मांग के मानिंद प्रतीत होती हैं। जैसे धरती नहा धो कर अपनी मांग बना रही हो। वैसे ही नदियां धरती की माथे की मांग सी सजी नदियां बेहद लुभावन लगती हैं। छोटी बड़ी तमाम तरह की नदी वास्तव में पूरी धरती पर मचलते हुए अंत में अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुंचती हैं।
नदी को खुद भी पता नहीं होता कि कब कौन उसमें आप्लावित हो रहा है। कौन उसके साथ खिलंदड़ी कर रहा है। वह बच्चा है या जवान, बूढ़ा है या कोई और यदि सवाधानी नहीं बरती तो नदी उसे मांफ नहंी करती। यूं तो नदी मां की तरह मुहब्बत करती है लेकिन मर्यादा लांघते ही सबक सीखाने मंे पीछे नहीं रहती। अ

दी के द्वीप कविता में अज्ञेय जी ने नदी को कुछ इस रूप में याद किया है कि तुम संस्कारित करते रहना। नदी हम हैं द्वीप। एक जगह ही खड़े रहेंगे। नदी ही दरअसल बहती है। हम तो बस कुछ समय के लिए प्रवहमान रहते हैं फिर अपने पीछे एक दुनिया छोड़कर चल पड़ते हैं। कोई लाख गुहार लगा ले। कोई आंसुओं की नदी क्यों न बहा दे लेकिन हम चले जाते हैं तो बस चली ही जाते हैं। लेकिन नदी तो कहीं नहीं जाती। वहीं के वहीं बहती रहती है। हां इतिहास बताता है कि कई सारी नदियां समय समय पर अपने रास्ते भी बदली हैं। शहर को छोड़कर दूर भी गई है। और कई बार तो सीमांत को छोड़कर बीच शहर-गांव में भी बहने के रास्ते निकाले हैं।

भी ऋषिकेश में गंगा के किनारे रात में खड़े हों लगेगा गंगा परेशान है। कुछ कहना चाहती है। पर कहना चाहती है यही तो स्पष्ट नहीं है। पर इतना तो साफ है कि हर नदी हमसे कुछ नहीं बहुत कुछ कहना चाहती है। यदि ठहर कर सोचेें तो मालूम चलेगा कि आखिर नदी सदियों से क्या कहना चाहती है? किस बात को लेकर नदी कसक रही है। वही पुकार हर नदी की होती है। वह कहती है मैं तुमसे पहले से हूं। और तुम्हारे जाने के बाद भी मैं यथापत् रहूंगी। मेरे ही किनारे दुनिया के तमाम शहर,नगर, देश बसे हैंै।

दी के अकेलेपन को दूर करने के लिए पहाड़ साथ होता है। पहाड़ भी तो अकेला कब तक खड़ा रहेगा। उसे भी तो साथ चाहिए। नदी और पहाड़ साथ साथ अपने दुख सुख बांटते एक साथ चला करते हैं। लेकिन कई बार पहाड़ नदी से मिलने के लिए इतना आतुर हो जाता है कि भरभरा कर नदी में जा मिलता है। और इस तरह से लंबे समय से साथ चलते हुए दो साथियों में मुलाकात संभव हो पाता है।
न जाने किन कोनों, मुहानों से होती हुई ये नदियां हम तक पहुंचती हैं। कहीं खाई में गिरती हैं तो कहीं चट्टानों से सिर फोड़ती हैं। कहीं शहर के बीच से होती हुई मचलती सैलानियों को लुभाती हैं। तो कहीं अपनी घहराती ध्वनियों से आकर्षित करती हंै।

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