Monday, September 29, 2014

कमरे की दुनिया



कौशलेंद्र प्रपन्न
हर कमरे की अपनी दुनिया होती है। कमरे भी इंसान की तरह ही अपनी कहानी कहते हैं। हम इस तरह से देख सकते हैं कि एक कमरा जहां हमारा बचपन,किशोरावस्था गुजरा होता है उस कमरे में हमारी यादें, भाई-बहनों के साथ की लड़ाइयां और दुलार भी ज़ब्ज होती हैं। जब हम बड़े हो जाते हैं तब वही घर के कमरे एकबारगी उदास और अकेले हो जाते हैं कि जैसे हम अचानक किसी नए शहर में अकेले और उदास हो जाते हैं। कभी अपने पुराने कमरों में लौटना हुआ हो तो एक अजीब सा अनुभव घेर लेता है। ऐसे ही अनुभव पिछले दिनों हुए। मैं तकरीबन दस साल के बाद उस कमरे में गया जिसमें होश संभाला था और जहां 8 वीं और 10 वीं की परीक्षाओं के लिए बैठकर पढ़ा करता था। अब उस कमरे की दीवारों पर पुरानी तस्वीरें, कैलेंडर और बहनों की बनाई पेंटिंग्स भर हैं। उन पंेटिंग्स और कैलेंडरों पर धूल का साम्राज्य है। अब मां पिताजी से उन्हें झाड़ना पोछना नहीं बनता। जिन आलमारियों पर किताब और अपने सामान रखने के लिए हम भाई- बहन लड़ा करते थे वही आलमारियां अब उदास और धूल से सनी हैं। जाले और पन्नी में लिपटे खड़े हैं। हम लोग बैठक घर को देवता घर कहा करते थे। उस देवता घर को देख कर लगा कई सालों से उसमें पूजा-पाठ नहीं हुआ है। इतना ही नहीं सोफे पर घड़ा, प्लास्टि की बाल्टी, टीन टप्पर रखे हैं। शायद रखना शब्द गलत होगा क्यांेकि सामान रखे हुए नहीं थे वे ठूंसे गए थे। सोफा और टेबल की भी अपनी कहानी है। इसे खरीदने के पीछे मां ने कितना जद्दो जहद किया था और आज उसकी यह स्थिति देख कर मन उचट रहा था। लेकिन शायद समय के साथ सामानों, स्थानों, व्यक्तियों आदि सभी की भूमिकाएं और मायने भी बदल जाती हैं। बड़े भाई ने 9 वीं कक्षा में एक संतोष रेडिया बड़ी शौक से खरीदा था। आज वह रेडियो भी एक कोने में उदास और मौन था। आडियो कैसेट्स भी यूं ही उपेक्षित लुढके हुए मिले।
कमरे की जीवंतता इंसानों के रहने से होती है। कमरा अपने आप में न तो जीवंत होता है और न उदास। यह इस पर निर्भर करता है कि कमरे में रहने वाला व्यक्ति कैसा है। किस तरह से इन कमरों में स्वयं को रख रहा है। ये वहीं कमरे होते हैं जहां हम जीवन के कई सारे निर्णय, जिद्द, बहस,प्यार के बीज बोते हैं। उन्हीं कमरों में हमारे वंशबेल की बुनियाद होती है। लेकिन जब हम कमरों से बाहर चल जाते हैं तब वही घटनाएं, बातें और स्मृतियों के हिस्सा हो जाया करती हैं। वैसे यह बात भी सच है कि हम पूरी जिंदगी एक कमरे में नहंी काट सकते। इस नाते हर कमरे की अपनी सीमा भी होती है। लेकिन क्या इस तथ्य से मुंह मोड़ सकते हैं कि कमरों में जिंदा दुनिया को हम कभी अपनी जिंदगी से अलगा सकते हैं?
जो कमरा अपने आगोश में मां-बाप भाई बहन को पनाह दिया करते थे वही कमरे अब इन्हीं सदस्यों की अनुपस्थिति में भंाए भाएं करते नजर आते हैं। इन कमरों में घुसना कई बार बड़ा भयानक और डरावना लगता है। वहीं दूसरी ओर एक बार फिर से पुरानी बातों और घटनाओं को याद करने का जरिया बन जाता है। अतीत में जाना और यादों को टटोलना हर किसी को अच्छा लगता है लेकिन उस अतीत से सही सलामत लौट आना एक चुनौती होती है।
जब हम किसी पुराने महलों किलों या स्मारकों के कमरों में घूम रहे होते हैं तब उस समय की सारी चीजें हमारी आंखों के सामने घूमने लगती हैं। अकथ्यतौर पर कमरा अपने जमाने की बातें सुनता है। वह सुनता है कि कैसे,किन हालातों में कोई इतना लंबा समय यहां पर गुजारा है। शांति निकेतन हो या गांधी आश्रम। इन कमरों को देखते घूमते हुए पूरा इतिहास आंखों के सामने जीवंत हो उठता है।
होस्टल के कमरे की अपनी अलग संस्कृति होती है। इन कमरों का अपना कोई निजी चरित्र नहीं होता। रात गुजार कर सुबह किसी और ठिकाने की ओर चल पड़ने वाले इन कमरों को यूं ही अकेला छोड़ जाते हैं। कमरा एक बार फिर से सज धज कर नए कस्टमर के लिए तैयार हो जाता है। यहां की हर चीज अपना रूप रंग बदल लेती है। आईना भी नए मेहमान के लिए तैयार हो जाता है। इन आईनों में कोई भी तस्वीर स्थान नहीं बन पातीं। यही इसकी त्रासदी भी है और नियति भी। जहां हर दिन नए चेहरे आते हैं वहां किसी खास चेहरे को बसाना संभव भी नहीं।
कमरे की अपनी निजी जिंदगी नहीं होती। उसकी जिंदगी तो कमरे में रहने वालों से तय हुआ करती हैं। जिस तरह का रहने वाला आया उसी रंग रूप में कमरे को ढलना होता है। कमरे की हर दीवार और रंग अपनी कहानी बयां करते हैं। बस हम ही हैं कि कमरों से कई बार बेआबरू हो कर निकलते हैं।

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