Sunday, June 16, 2013

पिता मेरे गुरु भी रहे
स्कूल में मेरे पिता क्लास टीचर भी थे। उन्होंने एक अध्यापक और पिता दोनों की भूमिका एक साथ निभाई। क्लास में पिटाई भी खाया और घर पर भी। घर से स्कूल के दरमियान रास्ते भर मुझे वाक्य संरचना, शब्दों और भाषा की दुनिया से परिचय कराते चलते।
भाषा के प्रति रूझान, साहित्य एवं जीवन दर्शन से रू ब रू कराया। उनसे सीखने को बहुत था मगर काफी कुछ छूट गया। जब मैं छोटा था तब अक्सर वो कहा करते थे, मेरी लंगोटी पर तो मेरे बच्चों का अधिकार है लेकिन मेरी ज्ञान संपदा पर नहीं। कितना मुझ से ले सकते हैं, यह उनकी क्षमता पर निर्भर करता है।
पिताजी से भाषा की शुद्धता, जीवन दर्शन और पढ़ाई की महत्ता की तालीम मिली। कई बार उनकी कविता को गुनगुनाते हुए पिताजी को याद कर लिया करता हूं। जब कभी उन्हीं की कविता जो उन्हें अब याद नहीं, गा कर सुनाता हूं तो अंदर तक गदगद हो जाते हैं। उनकी खुशी देख मन आनंदित हो जाता है।  

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