Wednesday, May 22, 2013

फिल्म और बच्चों की दुनिया

‘लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा घोड़े के दुम पे जो मारा हथैाड़ा दौड़ा दौड़ा....’खिलखिलाती अपनी धुन में गाती गुनगुनाती लड़की आज भी इस गाने को सुनते आंखों के आगे घूमने लगती है। वहीं एक दूसरे गाने के बोल उधार लेकर कहूं ‘मां मां मां सुनाओ मुझे वो कहानी जिसमें राजा न हो ना हो रानी...जहां परियां हों आसमानी...’इन गानों की मदद से आगे बढ़ता हूं। इन गानों में समय के साथ साथ बच्चों की मांगों, भूमिकाओं में बदलाव तो आए ही हैं साथ ही बच्चे ज्यादा मुखरता से अपनी दुनिया की झलक देते हैं। वहीं एक ऐसा बच्चा हमारा ध्यान अपनी ओर कुछ इस तरह खींचता है-‘बादल आवारा था वो कहां गया उसे ढूढ़ोंकृहर इक पल का जश्न मनता..’ यह गाना और फिल्म तारे जमीं पर बच्चों की बदहाल स्थिति से रू ब रू कराती है। हर बच्चा खास होता है और बच्चे की अपनी दुनिया। बच्चे की इस दुनिया को हम वयस्क कितनी गंभीरता से लेते हैं इसकी झांकी समय समय पर फिल्मों में मिलती हैं। लेकिन अफसोस की ज्यादा तर फिल्मों में बच्चों का इस्तेमाल महज खाली स्पेस को हलका करने व तलाक जैसे दर्दीले वक्त में लड़ाई के सूत्र के रूप में किए जाते हैं। बहरहाल बच्चों को फिल्मों में किन किन छवियों में कैद किए जाते हैं इसकी पड़ताल जरूरी है। क्योंकि इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कुछ फिल्मों ने बच्चों को लेकर अच्छा और धारदार बहस की शुरुआत की। बच्चों की समस्याओं को लेकर सरकार, न्यायपालिका, जनसमुदाय में एक जागरूकता भी आई।
फिल्मों से समाज का रिश्ता लंबा और काफी करीब का रहा है। कहते हैं कि फिल्मों में वही प्रतिबिंबित किया जाता है जो समाज में घटता है व घट रहा है। इसीलिए फिल्म को समाज का दपर्ण भी कहा गया है। इसमें ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं है। उदाहरण देखने निकलें तो कई फिल्मों की एक लंबी सूची बन सकती है जिसमें समाज, इतिहास, संस्कृति, भाषा आदि की तत्कालीन करवटें, दर्द-पीर साफ सुने-देखे जा सकते हैं। सचपूछें तो हिन्दी सिनेमा में कई फिल्में बड़े प्रसिद्ध उपन्यास, कहानी पर आधृत रहे हैं और उनका महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। पथेर पांचाली, हजार चैरासी की मां, पींजर, पीली छतरी वाली लड़की आदि। जैसा कि पहले भी निवेदन किया जा चुका कि फिल्मों की सूची लंबी हो सकती है। इसलिए यहां सूची बनाने की बजाए उन फिल्मों व दूसरे शब्दों में कहें तो फिल्मों की बुनावट में बच्चा-समाज कहां ज़ज्ब है, उसकी पहचान की जाए। किन्तु यहां स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि आलेख में हम फिल्म और बच्चे के द्वैत की गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करेंगे। क्योंकि बच्चे हमारे समाज के वो दलित, उपेक्षित वर्ग हैं , बल्कि हैं भी, की पहचान फिल्मों में की जाए। इसी मनसा से हिन्दी फिल्मों में बच्चे किस रूप, व्यक्तित्व, रंग एवं भूमिका के साथ इस्तेमाल किए जाते रहे हैं, इसपर विमर्श करना है। यहां यह भी स्पष्ट कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि दुनिया के हर बच्चे को 0 से 18 आयु वर्ग को वो तमाम अधिकार प्राप्त हैं जो एक आम नागरिक को संविधान प्रदान करता है। किन्तु अफसोस की बात यही है कि इन सांवैधानिक प्रावधानों के बावजूद बच्चे हमारे समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग नजर आते हैं। उस पर तुर्रा यह कि फिल्म निर्माताओं, निर्देशकों के तर्क यह होते हैं कि दर्शक यही देखना चाहता है। यह पूरा सच नहीं है। समाज की धड़कनों, करवटों, छटपटाहटों को एक व्यापक फलक पर लाना और एक वृहद् विमर्श खड़ा करना भी फिल्म का सरोकार है।

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