Wednesday, May 22, 2013

सांस लेने की छटपटाहट
शिक्षक जाति में सभी निराश एवं हताश ही हैं ऐसा कहना एक तरह से पूरी प्रजाति के साथ सरलीकरण होगा और ग़लत भी। यह तो हर व्यवसाय में होता है। सभी अपने धंधे से संतुष्ट हों। असंतोष की भावना हर व्यवसाय में देखी जाती है। लेकिन उन्हीं के बीच कुछ फीसदी ऐसे भी कर्मी होते हैं जिन्हें अपने व्यवसाय की निष्ठा, जिम्मेदारी का भरपूर ख़्याल रहता है। ऐसे ही जैसे कि पहले आलेख में उदास मना शिक्षक में लिख कि अध्यापक वर्ग में निराशा ज्यादा है। वहीं 10 फीसदी ऐसे उत्साही शिक्षक भी हैं जो पूरी ईमानदारी के साथ अपना शिक्षक धर्म निभा रहे हैं। यह अलग बात है कि इनकी संख्या कम है। ऐसे ही तकरीबन हर क्लास में दो चार अध्यापक/अध्यापिकाएं मिलीं जिन्हें कक्षा में न पढ़ा पाने का मलाल भी साल रहा था। उनका कहना था मैं पढ़ाना चाहती हूं। लेकिन पिछले एक साल से क़ागजी कामों में उलझी हुई हूं। कई बार लगता है आई तो पढ़ाने थी लेकिन यह क्या कर रही हूं। वहीं एक मास्टर जी ने भी अपनी व्यथा बयां की कि मैं कक्षा में पढ़ाने डूब जाता हूं। बच्चे आनंद लेते हैं लेकिन तभी अक्सर हेटमास्टर साहब की बुलालट आ जाती है और मेरा अध्यापन बीच में ही ठहर जाता है।
उम्मीद की रोशनी और सांस लेने की छटपटाहट ही व्यक्ति को जि़ंदा रखता है। जब तक ऐसे अध्यापक समाज में हैं तब तक उम्मीद पूरी तरह से ख़त्म नहीं मानी जा सकती।

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