Wednesday, May 22, 2013

अपना शहर और वो नदी
हां सही कह रहा हूं अपना शहर छूट कर भी नहीं छूटता। वो नदी सूखकर भी नहीं सूखती जिसकी कभी लबालब पानी भरा रहता था। पानी के सूखने के बाद भी रेत पर दौड़ते कुछ दूर तक जाना और पानी की आस में घूटने भर पानी में छप छप करना कहां छूट पाता है। न शहर छूटता है और न नदी।
एक नदी हम सब के अंदर बहा करती है। जिसका पानी साफ निर्मल और पारदर्शी होता है। मगर समय के साथ हमने उसको गंदला कर दिया। ताकि कोई हमारी तलहट्टी न देख पाए। सच कहूं तो वो नदी, वो शहर जहां बचपन गुजरे वो कभी पीछे नहीं छूटता। ताउम्र हमारी स्मृतियों में छलकती रहती है।

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