नाले की लाश और आम लाश में क्या अंतर हो सकता है ? बेहद आसन सवाल है, इक आम लाश को कम से कम कफ़न तो मयस्सर हो गति है लेकिन इक लावारिश लाश को वो सब चीजें मुनासिब कहाँ। जो इक आम लाश को होता है।
रोने को तो हर लाश के साथ कुछ आखें होती ही हैं। कुछ के लिए आखें सूखती ही नहीं तो कुछ के लिए आसूं ही नहीं आतीं। नाले में बहती लाश को देखने के लिए लोग तो खड़े हो जाते हैं लेकिन उसकी शिनाख्त में मदद करने में पीछे हो जाते हैं। वैसे भी नाले में बहती लाश के साथ वो कुछ भी नहीं होता जो इक आम लाश के साथ किया जाता है। यानि उसकी अंतिम यात्रा में वर्दी वाले ही होते हैं। अपने तो धुंध में दिन, महीने काट देते हैं। आश कब कि ख़त्म हो जाती है। इक दिन अचानक फ़ोन का आना कि इक बॉडी मिली है पहचान के लिए आज्ये।
आखों में उम्मीद लिए लाश को देखते हैं। कोई पुराना निशान को मोहताज़ पड़ा इक प्यारा अब और हमारे साथ शामिल नहीं जान कर धक्का लगता है। कुबूल तो करना ही पड़ता है। यह तो शुक्र है कि कम से कम लाश तो मिल गई। वर्ना परिवार के लोग पूरी ज़िन्दगी तलाश करते उम्मीद में जीते रहते।
लाश नाले की हो या जेरो लैंड की दोनों का हस्र इक सा ही होता है।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Monday, March 29, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
-
कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
-
प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
-
कौशलेंद्र प्रपन्न सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर...
No comments:
Post a Comment