Wednesday, June 14, 2017

रचना का विद्रोह और लेखकीय प्रतिबद्धता


कौशलेंद्र प्रपन्न
लेखक व कवि या फिर कलाकार की रचनाएं यदि प्रसिद्धी के शिखर पर बैठाती हैं तो वहीं उसे देश-निकाला तक दे देती हैं। लेखक को दर ब दर भटकने को भी मजबूर करने की ताकत उसकी रचनाएं रखती हैं। लेखक व कलाकार को  विस्थापित करने की क्षमता से भरपूर रचनाएं अपनी शक्ति के आधार पर वैश्विक पटल पर पहचानी जाती है और लेखक उसके कंधे पर चढ़कर विश्व की अन्य भाषाओं के मार्फत पाठकों तक पहुंचता है। एक ओर तस्लीमा नसरीन, सलमान रूश्दी, कल मुर्गी आदि लेखक हैं जिन्हें अपनी रचना की वजह से पराई जमीन पर जीवन बसर करने पर मजबूर हैं। कुछ को तो अपनी जिंदगी से ही हाथ धोनी पड़ गई। वहीं उर्दू की कलमकार इस्मत चुग्ताई को 1941 में लिखी कहानी की वजह से लाहौर हाई कोर्ट में मुकदमा का सामना करना पड़ा।
ये रचनाएं भी अजीब होती हैं। जब तक लेखक के जेहन में रहती हैं तब बेइंत्तेहां परेशान करती हैं कागज पर उतरने के लिए और जब लेखक उतार देता है तो वही रचनाएं खिलाफ में खड़ी हो जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो रचनाएं वो ताकत रखती हैं कि वो एक बड़े पाठक वर्ग तक जुड़ सकें। अभिव्यक्ति की इस बेचैनी को लेखक,कवि,कलाकार, पत्रकार से बेहतर और कौन समझ सकता है। यही वो लोग हैं जिन्हें शब्दों की सृजना का परिणाम भी इसी भावभूमि और दुनिया में स्वीकार करने पड़ते हैं। इसे अभिव्यक्ति का खतरा उठाना के रूप में पहचाना गया है। हर लेखक,कवि, कलाकार व पत्रकार महज लिखने के लिए नहीं लिखता। बल्कि वह अपने समाज, संस्कृति, परिवेश की घटनाओं, बजबजाहटों एवं छटपटाहटों को अपनी रचनाओं में प्रकट करता है। जब लेखक अपनी रचना में वर्तमान समय की चुनौतियों को दर्ज करता है तो प्रकारांतर से एक इतिहास का अध्याय ही लिख रहा होता है। उसे यदि उसकी रचना लेखक के खिलाफ खड़ी होती है तो हो इसकी चिंता लेखक को नहीं सताती। उसे निर्भय होकर वर्तमान के टकराहटों से बचने की बजाए अभिव्यक्त करना होता है।
इतिहास गवाह है कि लेखक,कवि, कलाकार एवं पत्रकार आदि क्यां लिखते हैं? यह सवाल कई मर्तबा लेखक को परेशान करती रही है। कई लेखकों ने इसका जवाब भी देने की कोशिश की है। यदि साहित्यकारों, साहित्य के सिद्धांतकारों की मानें तो कोई भी कवि, लेखक कुछ तय लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के महत ही लिखने के लिए विवश होता है। यश, कीर्ति, प्रसिद्धि, धन, भार्या प्रीत आदि। दूसरे शब्दों में कहें तो लेखक यश प्राप्ति, धन प्राप्ति, भार्या को रूचे आदि उद्देश्यों के लिए लिखता है। रचनाएं किसी न किसी उद्देश्य के लिए ही लिखी जाती हैं। यह काफी हद तक लेखक व कवि पर निर्भर करता है कि वह अपनी रचना से क्या अपेक्षा करता है। क्या उसे महज प्रसिद्धि की चाह है या उसे धन की भी मांग है। बाजार लेखक को धन और प्रसिद्धि दोनों ही दिलाने में सक्षम है। लेखक यदि बाजार की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए लेखन करता है तो उसे उक्त दोनां ही अपेक्षाओं की पूर्ति हो जाती है। लेकिन लेखक समाज में उसे वह स्थान नहीं मिल पाता जिसकी उम्मीद की जाती है। क्योंकि लेखक समाज जानता है कि फलां लेखक किस दबाव व मानसिकता के गिरफ्त में फलां रचना कर रहा है।
इस्मत चुग्ताई तो एक उदाहरण हैं ऐसे ही मंटो, कृष्णा सोबती, कृशन चंदर, निर्मल वर्मा, राजेंद्र यादव, उषा प्रियंवद, ममता कालिया, गीताश्री, प्रज्ञा आदि लेखिकाएं क्यों लिखती हैं और क्यों इनकी रचनाएं समय की शिला पर एक अमिट छाप छोड़ने की ताकत रखती हैं। निश्चित ही इनकी रचनाएं उनके व्यक्तित्व से आग निकल कर पाठक समाज के समक्ष एक नई छवि निर्मित करती हैं। हर लेखक/लेखिका की अपनी बनाई और रचनागत छवियां होती हैं जिससे उसे ताउम्र टकराना ही होता है। अपने समय और इतिहास से टकराने की ताकत रखने वाला रचनाकार ही लंबी दूरी तक अपनी रचना के कारण याद किया जाता है। तात्कालिक प्रसिद्धि व प्रभाव में लिखी गई रचनाएं समय के बाद अपनी चमक खो देती हैं।
कहानियां,कविताएं, उपन्यास,यात्रा संस्मरण आदि विधाओं में लिखी जाने वाली भावप्रवण अभिव्यक्तियां जब पाठकों तक पहुंचती हैं तब वह अपनी पूरी ताकत के साथ उपस्थित होती हैं। एक बार लेखक,कवि, पत्रकार की कलम से लिखी जाने के बाद रचनाएं उसके हाथ से निकल जाती हैं। उन रचनाओं पर लेखक का भी अधिकार नहीं होता। अब वह पाठक समाज की हो कर रह जाती हैं। कभी निर्मल वर्मा ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि एक बार लेखक जब कुछ लिख लेता है और वह प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंच जाती है उसके बाद उन रचनाओं पर लेखक से ज्यादा अधिकार पाठक वर्ग का होता है। लेखक एक रचना करने के बाद वह दूसरी रचना में तल्लीन हो जाता है। उसे लेखक के तौर जो कहना था वह कह चुका। पाठक की पूरी छूट है कि वह उसकी रचना का किस रूप मेंं, किस स्तर पर अर्थ की परतें खोल पाने में सक्षम हो पाता है।
विश्व के कई लेखक, कवि, कलाकार, पत्रकार एवं चित्रकार अपनी ही रचनाओं की ताकत के आगे झुकने पर मजबूर हुए हैं। उन्हें देश, समाज, परिवार, और घर छोड़कर विस्थापित की जिंदगी बसर करनी पड़ी है। कुछ नामां का जिक्र भर यहां किया गया है। किन्तु यह मसला इतना आसान नहीं है जितना यह देखने में आता है। क्योंकि रचनाएं ही हैं जो किसी को नोबल पुरस्कार, साहित्य आकदमी, ज्ञानपीठ आदि पुरस्कारों से सम्मानित कराती हैं तो वहीं दूसरी ओर लेखक को अपन रचनाओं की ताकत व बगावत के सामने घुटने टेकने पड़ते हैं। कोर्ट कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ते हैं। तो क्या लेखक इस भय से लिखना छोड़ दे। क्या लेखक विचार की अभिव्यक्ति के खतरे उठाने छोड़ दे। संभव है लेखक निर्भर होकर लेखन प्रक्रिया में जुड़ा होता है। उसे इसकी चीज की परवाह नहीं होती कि उसकी रचना उसके खिलाफ खड़ी होने वाली है या उसके साथ खड़ी होगी। लेखक कोई भी हो वह सिर्फ अपने पाठक के लिए लिखता है। भारतीय भाषाओं के लेखक,कवि, कलाकार एवं पत्रकार पाठक समाज के लिए लिखता है। उसके लेखन में वैश्विक चिंताएं होती हैं जिसका पाठक वर्ग व्यापक होता है। यह पाठक वर्ग पर निर्भर करता है वह रचना को किस रूप में अर्थ ग्रहण कर रहा है।
रचना की ताकत और रचना का विद्रोह कई बार इस स्तर पर भी निर्भर करता है कि लेखक व कवि किस भाव दशा और उद्देश्य के स्तर पर रचना रच रहा है। रचना सृजन के पीछे हर लेखक का अपना मकसद होता है। कुछ लेखक महज विवाद के लिए लिखते हैं तो कुछ लेखक बाजार की मांग के अनुसार लेखन करते हैं काफी हद तक ऐसे लेखकों की रचनाएं विवाद, पाठकीय ध्यान तो केद्रीत कर पाती हैं लेकिन आलोचकीय दिष्ट उनकी रचना के गायब होती हैं।


2 comments:

darpan mahesh said...

Sahi bat Kahi hai prappann ji me.

Neha Goswami said...

बहुत अच्छा लेख। सहमत हूँ कि पाठकों के हाथ में आने के बाद रचनाओं पर पाठकों का भी हक़ होता है। ईमानदारी से लेखन करना ही अभिव्यक्ति की लड़ाई है

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