Monday, December 12, 2016

शिक्षा इस बरस उर्फ मारी गई बेचारी


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा में भी कई सारी घटनाएं इस वर्ष घटी हैं जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। इन्हीं घटनाओं से शिक्षा को आने वाले वर्षों में आकार मिलने वाला है। शिक्षा को प्रभावित करने वाले घटकों में राजनीति, अंतरराष्टीय घोषणाएं, राष्टीय स्तर पर की गई पहलकदमियों की परतों को खोलना होगा। भारतीय शिक्षा को गहरे प्रभावित करने वाले तत्वों की पहचान कर उनके निहितार्थों को समझना होगा। शैक्षिक परिदृश्य में 2016 में हुई पहलों को समझने के लिए ठहर कर देखना होगा। पहली अहम घटना राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण और उसकी घोषणा है। हालांकि राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण की घोषणा 2015 में हुई थी लेकिन वह दस्तावेज 2016 के जून में किसी तरह आमजनता के बीच खुल गई। सरकारी स्तर पर आधिकारिक खुलासा नहीं था। इसलिए बाद में सरकार उसे आम जनता की सिफारिशों के लिए जारी की। वहीं सहस्राब्दि विकास लक्ष्य जो 2000 में लॉंच किया गया था। उसके अनुसार 2015 तक सभी बच्चों की बुनियादी शिक्षा का लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा, वह 2016 में तय सीमा को बढ़ाकर 2030 किया गया। वहीं मानव संसाधन मंत्रालय को एनसीईआरटी ने सिफारिश दी कि कक्षा आठवीं तक की शिक्षा को मातृभाषा में दी जाए। साथ ही केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने सिफारिश की कि दसवीं की बोर्ड परीक्षा दुबारा से शुरू की जाए। इसे सिफारिश को मंत्रालय ने अपनी स्वीकृति भी दे चुकी है।
नई राष्टीय शिक्षा नीति बनाने की जरूरतों पर लंबे समय से बात चल रही थी। यह काम 1986 के बाद 2015-16 में संभव हो सका। इस दस्तावेज में भाषा,विज्ञान, गणित आदि विषयों की शिक्षण पद्धतियों पर विचार किए गए हैं। लेकिन यह दस्तावेज विवाद के घेरे में तब आया जब इस दस्तावेज समिति के प्रमुख ने स्वयं ही कुछ पन्ने सोशल मीडिया के मार्फत जारी किए। तक सरकार की मजबूरी हो गई कि उस दस्तावेज को आमजनता को उपलब्ध कराया जाए। दिलचस्प बात यह है कि आम जनता से 180 शब्दों में ट्विट के स्वरूप में सुझाव मांगे गए थे। हालांकि जिन्हें इस दस्तावेज में रूचि थी उनसे 31 जुलाई तक सुझाव शामिल करने के दावे किए गए थे। उन्हें किस स्तर और कहां जगह दी गई यह तो मूल नीति दस्तावेज को देखने के बाद ही मालूम होगा। राष्टीय शिक्षा नीति निर्माण में दावा किया गया कि गांव और ब्लॉक स्तर पर विचार विमर्श के जरिए सुझाव मांगे गए। समाज के विभिन्न एनजीओ और शिक्षा आधिकार कानून के लिए लंबे समय से वकालत करने वाली संस्था आरटीईफोरम ने भी अहम भूमिका निभाई। लेकिन चालीस पेज के दस्तावेज को देखने और अध्ययन करने के बाद आरटीईफोरम के संयोजक श्री अमरीश राय मानते हैं कि यह दस्तावेज ज्यादा उम्मीद नहीं जगाती बल्कि पूर्वग्रहों को ढोने वाली सी लगती है। नई राष्टीय शिक्षा नीति में इतिहास, भाषा और विज्ञान को एक ख़ास नजर से देखने और पढ़ाने की वकालत भी की गई है। शिक्षाविद्ों की नाराजगी भी इस एनसीएफ पर सामने आ चुकी है।
सहस्राब्दि विकास लक्ष्य में शिक्षा को भी शामिल किया गया था। इसमें हमने घोषित किया था कि 2016 तक सभी 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर देंगे। लेकिन हम इस लक्ष्य को पाने में विफल रहे। 2015 में आरटीई के लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर पाए। इसे देखते हुए आरटीई और एमडीजी लक्ष्य अब जिसे सस्टनेबल डेवलप्मेंट सतत विकास लक्ष्य को 2030 तक प्राप्त करने तक धकेल दिया गया है। इस एसडीजी के लक्ष्य के अनुसार अब हम 2030 तक सभी बच्चों को समान, गुणवत्तापूर्ण समेकित शिक्षा प्रदान कर लेंगे। लेकिन इस लक्ष्य को पाने में क्या और किस प्रकार की दिक्कतें आएंगे उस ओर ग्लोबल एजूकेशन मोनेटरिंगे रिपार्ट 2016 का मानना है कि भारत में अभी भी सात करोड़ से ज्यादा बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। यहां तक कि स्कूलां में प्रशिक्षित शिक्षकों कमी है। इस तथ्य को तो सरकारी संस्था नीपा द्वारा जारी डाइस रिपोर्ट में भी देखी जा सकती है। सिर्फ दिल्ली की बात करें तो पांच से छह हजार शिक्षकों के पद खाली हैं। बिहार, राजस्थान, हरियाण, उत्तर प्रदेश बंगाल आदि में चार से पांच लाख पद रिक्त हैं। बिना शिक्षकां के क्या लक्ष्य हासिल कर पाएंगे? क्या तदर्थ शिक्षकों के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर पाएंगे। ये कुछ ऐसे जमीनी सवाल हैं जिनका जवाब हमें देना होगा। स्थाई शिक्षकों को बहाल करने से बचने वाली सरकार तदर्थ शिक्षकों को नियुक्त कर रही है। हाल ही में दिल्ली सरकार ने तदर्थ शिक्षकों के मासिक वेतन में बढ़ोत्तरी कर अब 33,000 देने की घोषणा की है। देखना यह भी दिलचस्प होगा कि क्या अन्य राज्यों में भी तदर्थ शिक्षकों को पांच और दस हजार से आगे जाकर कितने वेतन मिल रहे हैं।
कौशल विकास और डिजिटल इंडिया निर्माण के दौर में शिक्षा को भी इसी राह पर तो हांक दिया गया लेकिन क्या स्कूली रास्ते को उस लायक बनाया गया? क्या शिक्षक स्कूलों में हैं? यदि हैं तो क्या वे स्वयं तकनीक का इस्तमाल कर रहे हैं? महानगरों को छोड़ दिया जाए तो कस्बों और गांवों में स्कूल के भवन कम्प्यूटर चलाने के लिए तैयार हैं? हकीकत यह है कि अभी भी एकल शिक्षकीय स्कूल वजूद में हैं। दो या तीन शिक्षकों के कंधे पर प्राथमिक शिक्षा दौड़ रही है। कौशल विकास को हवा पानी देने के लिए स्कूलों में वोकेशनल यानी रोजगारपरक कोर्स को बढ़ावा दिया जा रहा है। कक्षा तीसरी से रोजगारपरक कोर्स चुनने के विकल्प बच्चों के हाथ में दिए जाने की योजना बन चुकी है। तर्क यह दिया गया कि जो बच्चे शुरू से ही काम करना चाहते हैं उन्हें स्कूलों में ही जीवन कौशल और काम के हुनर प्रदार किए जाएं ताकि स्कूल से बाहर आते ही अपना रोजगार शुरू कर सकें। क्या ऐसा नहीं लगता कि यह आरटीई के प्रावधानों को धत्ता बताना है क्योंकि एक ओर तो 14 वर्षतक के बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान करने की बात की जा रही हैं वहीं हम उन्हें स्कूल बीच में ही छोड़ जाने की स्थिति में काम कौशल का झुनझुना पकड़ा रहे हैं। वर्तमान सरकार की वोकेशनल कोर्स के लागू करने के पीछे की बेचैनी को समझने की आवश्यकता है।
केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने हाल ही में एचआरडी को सिफारिश दी है कि दसवीं की परीक्षा पुनः बहाल की जाए। साथ  ही साथ कक्षा आठवीं तक किसी भी बच्चे को फेल नहीं किए जाने की नीति में बदलाव लाने की मांग की गई। माना गया कि इससे बच्चों में पढ़ने की आदत में गिरावट और डर खत्म हो गया। बच्चों में क्षीण होती पढ़ने की आदत को कैसे विकसित किया जाए इस ओर कोई खास गंभीर विमर्श सुनने और पढ़ने को भी नहीं मिलते। जबकि डिजिटल इंडिया निर्माण पर खासा बहसें सुनी जा सकती हैं। यह भी कितना एकल विकास है कि जहां किताबें लाइब्रेरी तक नहीं पहुंचती लेकिन हम डिजिटल पाठकों की कल्पना से भर गए हैं।


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