Tuesday, November 8, 2016

मातृभाषा के मार्फत प्राथमिक शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल में राष्टीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् ने नई शिक्षा नीति में बदलाव के लिए अपनी सिफारिश पेश की है कि बच्चों को कक्षा आठवीं तक मातृभाषा में शिक्षा दी जाए। एक एक गंभीर सिफारिश है जिसे लंबे संमय से नजरअंदाज किया जाता रहा है। गौरतलब है कि वर्धा में शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन में गांधीजी ने इसकी सिफारिश की थी लेकिन वह अब तक व्यवहार में नहीं आ पाई। गांधीजी के अलाव भी विभिन्न शिक्षा और भाषाविद्ों ने भी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा दिऐ जाने की वकालत कर चुके हैं। प्रो कृष्ण कुमार, मातृभाषा और मानक भाषा पर विमर्श पिछले साल न्यूपा के राष्टीय स्थापना दिवस पर बोला था कि मातृभाषा में बच्चों की कल्पनाशीलता और सृजनाशीलता को बचाई जा सकती है। प्रो कुमार ने इस मसले पर कहा था कि मातृभाषा में बच्चे जिस सहजता के साथ अपने आप को अभिव्यक्ति कर पाते हैं वह वैचारिक अभिव्यक्ति सीखी गई दूसरी भाषा में नहीं आ पाती। शिक्षा-भाषाविद्ों ने माना है कि बच्चे के पास जितनी उसकी मातृभाषा की ताकत होती है वह उतना ही सृजनशील और चिंतन में प्रखर होता है। भाषा वैज्ञानिकों का भी मानना है कि मातृभाषा और मानक भाषा के बीच बच्चों की सीखने की क्षमता मातृभाषा में ज्यादा तेज होती है। किन्तु लगातार बच्चों पर अपनी मातृभाषा छोड़ दूसरी भाषा को बरतने के लिए शिक्षा और समाज बाध्य करता है। ऐसे बच्चों भाषायी संघर्ष में पड़ जाते हैं। इस संघर्ष बच्चों को ताउम्र सहना और जीना पड़ता है। पूरी जिंदगी बच्चा दो भाषाओं की दक्षता और अस्मिता की पहचान के बीच झूलता रहता है। जब भी भाषायी अस्मिता सामने आती है तब वह मातृभाषा की पीछे छोड़ दूसरी मानक भाषाओं को गले लगा लेता है। वह भाषा उसकी अभिव्यक्ति की ताकत बन जाती है जिसमें उसे अच्छी नौकरी और पहचान मिलती है। धीरे धीरे व्यक्ति की मातृभाषा पिछले पायदान पर खड़ी हो जाती है। सामने खड़ी भाषा जिसमें बाजार काम करती है उस भाषा को अपना लेता है।
शिक्षा पर गठित तमाम समितियों, आयोगों जिनमें कोठारी आयोग, राष्टीय शिक्षा नीति, राष्टीय शिक्षा आयोग, राष्टीय शिक्षा नीति की पुनरीक्षा समिति आदि ने भी लगातार शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को ही बनाने की वकालत की, लेकिन फिर क्या वजह है कि आज तक इन सिफारिशों को अमल में नहीं लाया गया या नहीं लाने दिया गया। यहां एक वजह राजनीति हस्तक्षेप एक बड़ा कारण है। वह हस्तक्षेप हमें भाषा के आधार पर राज्यों के विभाजन से शुरू होकर आज तक बतौर जारी है। मातृभाषा और मानक भाषा के बीच एक फांक नजर साफ देख सकते हैं। कक्षा में मातृभाषा के स्तर पर बच्चों के साथ होने वाले भेदभाव भी किसी से छूपे नहीं हैं। इस स्तर पर निजी स्कूलों में जिस तरह से मातृभाषा को दबाकर अंग्रेजी को तवज्जों दी जाती है यह भी किसी भी अभिभावकों से छुपा नहीं है। सिर्फ हिन्दी को छोड़कर बच्चों को कक्षा में अन्य मातृभाषा के इस्तमाल पर मुंह बिचकाए जाते हैं। और तो और गैर अंग्रेजी भाषी बच्चों को दंड़ भी भुगतने पड़ते हैं। ऐसे में मातृभाषा कहीं हाशिए पर धकेल दी जाती है।
कक्षायी अवलोकन बताते हैं कि बच्चां को मातृभाषा के इस्तमाल पर अलिखित ऐसा माहौल दिया जाता है जिसमें मातृभाषा के पनपने और विकसने का अवसर बच्चों से अगल कर दिया जाता है। बच्चे जिस मातृभाषायी परिवेश से कक्षा में आते हैं उन्हें उस भाषायी परिवेश से काट दिया जाता है। तो क्या वजह है कि उनकी मातृभाषा बच पाएगी। सामान्यतौर पर बच्चे अपनी मातृभाषा इस्तमाल सिर्फ अपने घर,परिवार और दोस्तों के बीच ही कर पाते हैं। जैसे ही स्कूली परिसर में दाखिल होते हैं उन्हें अपनी मातृभाषाओं को बाहर करना पड़ता है। बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तब भी शिक्षा उन्हें उनकी मातृभाषा के साथ कैसा बरताव रखा जाए इसकी मदद नहीं करता। दरअसल हमारी पूरी शिक्षा नीतियां, सिफारिशें मातृभाषा के बढ़ावा के लिए नीतिगत मदद तो करती हैं लेकिन अमलीजामा पहनाने की जहां बात आती है वहीं हम पिछड़ने लगते हैं।
विभिन्न शोधों की निष्पत्तियां इस तथ्य को स्थापित कर चुकी हैं कि बच्चे की सर्वांगीण विकास में उसकी मातृभाषा एक बड़ी भूमिका निभाती है। ताउम्र हम अपनी मातृभाषा को नहीं भूल पाते। हम कितनी भी गैर मातृभाषा में दक्षता हासिल कर लें लेकिन जहां तक भाषायी सहजता को प्रश्न है तो हर व्यक्ति अपनी मातृभाषा को चुनता है। लेकिन हमारा नागर समाज और शिक्षायी परिदृश्य मातृभाषा को हमेशा ही पिछले पायदान पर धकेलती नजर आती है। वही वजह है कि मातृभाषा व्यापक विमर्श की परिधि से बाहर हो जाती है। गौरतलब है कि राष्टीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2000, 2005 बड़ी ही शिद्दत से बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा देनी की सिफारिश करती है।
जब बच्चा कक्षा में अपनी मातृभाषा का इस्तमाल करता है तब बच्चे तो बच्चे शिक्षक भी एक बार हंसे बगैर नहीं रह पाते। मसलन ‘लाइन पार दीजिए’ ‘माथा पेरा रहा है’ आदि वाक्य सुनते हम एक ख़ास राज्य का ठप्पा लगाकर उन्हें उनकी मातृभाषा के प्रयोग पर परोक्षरूप से छलनी लगा देते हैं। दुबार वे बच्चे इन वाक्यों को बोलने से पहले हजार बार सोचते हैं। प्रकारांतर से हम बच्चों के वाचिक अभिव्यक्ति भाषा के एक कौशल से काट देते हैं। जबकि एनसीएफ 2005 एवं गांधीजी की वकालत मातृभाषा को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के तौर पर इस्तमाल करने की थी। कितने बेहतर होता कि इन वाक्यां को प्रोत्साहित करे उन्हें मानक भाषा की ओर मोड़ते। वे कितने धनी होते कि उनके पास दो भाषाएं एक साथ होतीं। लेकिन हमने उन बच्चों से उनकी सहज अभिव्यक्ति की भाषा में मट्ठा डाल दी।

 

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