Thursday, November 17, 2016

शिक्षा में इन दिनों

कौशलेंद्र प्रपन्न
हाल ही में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति ने मानव संसाधन मंत्रालय को अपनी सिफारिशों दी हैं जिसमें स्कूली शिक्षा में एक बड़ा बदलाव आज नहीं बल्कि कुछ वर्षों के बाद जमीन पर दिखाई देगी। यूं तो शिक्षा में नवाचार और बदलाव समय समय पर होते ही रहे हैं जो आज शैक्षिक इतिहास में दर्ज है। जिन सिफारिशों को केब ने एमएचआरडी को सौंपी हैवह शिक्षा की मूल संवेदना और बुनावट को गहरे प्रभावित करने वाली है।केब की सह समिति कौशल और तकनीक ने सुझाव दिए हैं कि कक्षा तीसरी से रोजगारोन्मुख शिक्षा और दक्षता प्रदान की जाए। गौरतलब हैकि हर हाथ को काम और हर हाथ को शिक्षा पर गांधीजी ने वर्धा में शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन में दी थी। उनका मकसद यही था कि प्राथमिक शिक्षा हासलि करने के बाद बच्चे बेकार न हो जाएं।जब बच्चे अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी कर समाज में लौटें तो उनके हाथ में कोई दक्षता व कौशल होनी चाहिए ताकि वह अपना जीवन सम्मानपूर्वक चला सके। उद्देश्य तो गांधीजी का यह भी था कि रोजगार से कटी शिक्षा अंततः बच्चों को जीवन कौशलों से भी विलगा देती है।मानव संसाधन मंत्रालय इन सिफारिशों को कितनी गंभीरता से अमलीजामा पहनाती है।यह भविष्य तय करेगा किन्तु इतना तो स्पष्ट हैकि जब जब सत्ताएं बदली हैंतब तब शिक्षा को अपने तरीके से बदलने का प्रयास किया गया है।इससे भी इंकार नहीं कर सकते कि वर्तमान सरकार इस काम में पीछे है।इसने भी विभिन्न राज्यों में इतिहास, भाषा, विज्ञान के साथ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और पूर्वग्रहों को बच्चों के बस्ते में डालने की कोशिश की है।वहां उन परिवर्तनों को गिनाना हमारा कत्तई इरादा नहीं है।लेकिन संकेतक के तौर पर हमें समझना लेना जरूरी लगता हैकि शिक्षा को किस प्रकार समाज में अपने वैचारिक पूर्वग्रहों और स्थापना को स्थापित करने के प्रयास हुए हैं।
केब की ओर से सुझाए गए बिंदुओं में प्रमुख यही हैकि कक्षा तीसरी से ही बच्चों को तकनीक और कृषि आदि की दक्षता प्रदान की जाए। इतनी छूट जरूर दी गई हैकि राज्य सरकारें अपनी सांस्कृतिक, आर्थिक,सामाजिक बुनावटों के अनुरूप पाठ्यचर्याका निर्माण कर सकते हैं।इसी कडी में यह भी बताते चलें कि क्या शिक्षा के अधिकार नियम 2009 का उल्लंघन नहीं हैकि एक ओर आरटीई सभी 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को कक्षा आठवीं तक की शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रदान करती हैवहीं हम बच्चों को प्रकारांतर से काम,रेजगार की ओर हांक रहे हैं।कि बच्चे 5 वीं तक पहुंचते न पहुंचते शिक्षा बेशक पूरी न करें काम पर पहले लग जाए।ंक्योंकि जैसे ही हम उन्हें काम करने के कौशलों में दक्षता प्रदान कर देंगेवैसे ही उनके अभिभावकों के दबाव शिक्षा को चुनने की बजाए काम को चुनने के लिए प्रेरित करेंगे।सरकार के इस काम में राष्टीय खुला विद्यालय साथ देगा। प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो अनिल सद्गोपाल के शब्दों को उधार ले कर कहूं तो आरटीई और रोजगारपरक जिसे वोकेशनल एजूकेशन का नाम दे रहे हैं वह दरअसल बच्चों को शिक्षा के अधिकार ने वंचित रखने का परोक्ष कदम है। और सरकार पर एजेंडे पर जोरशोर से काम कर रही है। यही वजह है कि आज उच्च शिक्षा में रूचि रखने और पढ़ने वालों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ने की बजाए घट ही रही है। यदि न्यूपा व प्रथम की रिपोर्ट के हवाले से कहें तो हर साल स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के कारणों की पड़ताल करें तो पाते हैं कि जिन बच्चों के माध्यम से घरां में आर्थिक मदद मिलती है उन बच्चों को स्कूल भेजने से अभिभावक कतराते हैं। अब कल्पना की जा सकती है कि जब बच्चे तीसरी कक्षा से ही दक्षता हासिल कर लेंगे त बवे कितने समय तक काम से बच रह सकते हैं। इस ओर सरकार को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
दूसरी बड़ी शैक्षिक चिंता व घटना कह लें वह है कि राष्टीय स्वयं सेवक संघ का तकनीक और विज्ञान शाखा विज्ञान भारती ने विभिन्न स्कूलों में वैदिक गणित और विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान पर एक राष्टीय स्तर पर परीक्षा का आयोजन बीस नवंबर को करने वाली है। इस परीक्षा में देश के तकरीबन 2000 सरकारी और गैर सरकार स्कूलों को शामिल किया जाएगा। अनुमान लगा सकते हैं कि इन स्कूलों के लगभग 140,000 बच्चे जो कक्षा छठी से ग्यारहवीं में पढ़ते हैं, वे हिस्सा लेंगे। तीन घंटे तक बच्चों से इस परीक्षा में विज्ञान में भारतीय योगदान और डॉ कलाम का जीवन से संबंधित सवाल पूछे जाएंगे। गौरतलब है कि इस परीक्षा की येजना बनाने और सवालों के निर्माण में विज्ञान-भारती अकेली नहीं है बल्कि उसके साथ केंद्रीय विद्यालय, दिल्ली पब्लिक स्कूल, नवोदय विद्यालय, अमेटी इंटरनेशनल भी शामिल हैं। इन स्कूलों ने अपने शिक्षकों को निर्देश भी जारी किए हैं कि बच्चों को इन विषयों की तैयारी के लिए अलग से इंतजाम करें। क्या बच्चों पर पहले से पाठ्यपुस्तकों की सामग्री कम थी जो इन्हें भी उनके कंधे पर डाला जा रहा है। यह तो एक सवाल है दूसरा सवाल इससे ज्यादा गंभीर है कि कहीं यह एक खास वैचारिक वर्गों का शिक्षा पर लंबी रणीतिक काबीज होने की शुरुआत तो नहीं है?
शिक्षा में वैचारिक प्रतिबद्धता और पूर्वग्रहों को ऐसे ही दबे छूपे रास्तों से प्रवेश दिलाया जाता है। आमजनता को यह एक मामूली सी घटना लगती है लेकिन इसके खतरे हम आज भांप पाने में सक्षम नहीं होते जो बीस-तीस सालों में भयंकर रूप ले लेता है। शिक्षा को ऐसे पूर्वग्रह घूसपैठियों से किसी भी सूरत में बचाने की आवश्यकता है। प्राथमिक शिक्षा निश्चित ही किसी भी देश-समाज की चरित्र को तय करती है। यदि मिट्टी ही रेतीली,भूरभूरी होगी तो क्या हम उससे एक मुकम्मल विकसित और विज्ञान सम्मत तर्कशील समाज का निर्माण कर सकते हैं? संभव है हमारा सपना और हकीकत दोनों ही टकराएं। इसमें टूटना तो सपने को ही है। हकीकत तो हकीकत है ही कि सरकारें किस प्रकार से वैज्ञानिक चिंतन का गला घोंटकर असहिष्णु समाज का निर्माण करती है जिसमें बच्चों/बच्चियों के बीच शैक्षिक भेदभाव किए जाते हैं।


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