भाषा और बोली के मरने की ख़बर हर किसी को है। हर कोई भाषा बोली को मरते अपने सामने देख रहा है। देख रहा है कि किस तरह से मातृभाषा को शिक्षा-शिक्षण की मुख्य धारा से काट कर बच्चों को एक दूसरी भाषा सीखने पर जोर बनाया जा रहा है। हर अभिभावक चाहते हैं कि उसका बच्चा अपनी मातृभाषा के अलावा अंग्रेजी जरूर बोलना, लिखना और पढ़ना सीख लें। अंग्रेजी के बगैर उसके लाल का भविष्य गोया अंधकारमय है। यदि अंग्रेजी नहीं सीखी तो उसकी जिंदगी बेकार है। ऐसी धारणाएं आम हैं। साथ यह भी आम है कि विदेशी भाषा के नाम पर हमारे जेहन में यदि किसी ताकतवर भाषा की छवि उभरती है तो वह अंग्रेजी ही है। हम अपने बच्चों पर इस गैर मातृभाषा सीखने के लिए कितना और किस कदर दबाव बनाते हैं इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। बच्चे की सहज अभिव्यक्ति-क्षमता, सृजनशीलता और कुछ नया सोचने की बीज बचपन में ही जल जाती है। मौलिक चिंतन और भाषीय छटा के बीज को अभिभावक, समाज और अंत में शिक्षा व्यवस्था ही मट्ठा देती है। तुर्रा यह कि हमारे बच्चे मातृभाषा नहीं बोलते। हमारे बच्चे अपनी भाषा से कट रहे हैं। यह कितना बड़ा अन्याय है कि पहले हम बच्चों से उनकी स्वभाविक भाषा-बोली अलग करते हैं और फिर दोष का ठीकरा भी उन्हीं पर फोड़ते हैं। दरअसल हमें भाषा-बोली के मरने और शिक्षा की मुख्यधारा में उसकी हैसीयत को पहचानना होगा।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Friday, January 9, 2015
भाषा और बोली के मरने की ख़बर
भाषा और बोली के मरने की ख़बर हर किसी को है। हर कोई भाषा बोली को मरते अपने सामने देख रहा है। देख रहा है कि किस तरह से मातृभाषा को शिक्षा-शिक्षण की मुख्य धारा से काट कर बच्चों को एक दूसरी भाषा सीखने पर जोर बनाया जा रहा है। हर अभिभावक चाहते हैं कि उसका बच्चा अपनी मातृभाषा के अलावा अंग्रेजी जरूर बोलना, लिखना और पढ़ना सीख लें। अंग्रेजी के बगैर उसके लाल का भविष्य गोया अंधकारमय है। यदि अंग्रेजी नहीं सीखी तो उसकी जिंदगी बेकार है। ऐसी धारणाएं आम हैं। साथ यह भी आम है कि विदेशी भाषा के नाम पर हमारे जेहन में यदि किसी ताकतवर भाषा की छवि उभरती है तो वह अंग्रेजी ही है। हम अपने बच्चों पर इस गैर मातृभाषा सीखने के लिए कितना और किस कदर दबाव बनाते हैं इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। बच्चे की सहज अभिव्यक्ति-क्षमता, सृजनशीलता और कुछ नया सोचने की बीज बचपन में ही जल जाती है। मौलिक चिंतन और भाषीय छटा के बीज को अभिभावक, समाज और अंत में शिक्षा व्यवस्था ही मट्ठा देती है। तुर्रा यह कि हमारे बच्चे मातृभाषा नहीं बोलते। हमारे बच्चे अपनी भाषा से कट रहे हैं। यह कितना बड़ा अन्याय है कि पहले हम बच्चों से उनकी स्वभाविक भाषा-बोली अलग करते हैं और फिर दोष का ठीकरा भी उन्हीं पर फोड़ते हैं। दरअसल हमें भाषा-बोली के मरने और शिक्षा की मुख्यधारा में उसकी हैसीयत को पहचानना होगा।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
-
कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
-
प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
-
कौशलेंद्र प्रपन्न सदन में तकरीबन साठ से अस्सी जोड़ी आंखें टकटकी लगाए सुन रही थीं। सुन नहीं रही थी बल्कि रोए जा रही थी। रोने पर उन्हें शर...
No comments:
Post a Comment